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________________ आचार्य समन्तभद्र आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य गृद्धपिच्छके पश्चात् जैन वाङ्मयकी जिस मनीपीने सर्वाधिक प्रभावना की और उसपर आये आघातोको दूर कर यशोभाजन हुआ वह है स्वामी समन्तभद्राचार्य । शिलालेखो तथा परवर्ती ग्रन्थकारोके ग्रन्थोमें इनका प्रचर यशोगान किया गया है। अकलकदेवते इन्हें म्याटादतीर्थक प्रभावक और स्याद्वादमार्गका परिपालक, विद्यानन्दने स्याद्वादमार्गानणी, वादिराजने सर्वज्ञप्रदर्शक, मलयगिरिने आद्य स्तुतिकार तथा शिलालेसोमें वीर-शासनकी सहस्रगुणी वृद्धि करने वाला, श्रुतकेवलिसन्तानोन्नायक, समस्तविद्यानिधि, शास्त्रकार एव कलिकालगणधर जैसे विशेषणो द्वारा उल्लेखित किया है। समन्तभद्र का समय वस्तुत दार्शनिक चर्चामो, शास्त्रार्थों और खण्डन-मण्डनके ज्वारभाटेका समय था। तत्त्वव्यवस्था ऐकिान्तिक की जाने लगी और प्रत्येक दर्शन एकान्त पक्षका आग्रही हो गया। जैन दर्शनके अनेकान्तसिद्धान्तपर भी घात-प्रतिघात होने लगे। फलत आहत-परम्परा ऋपभादि महावीरान्त तीर्थंकरो द्वारा प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्थापक स्याद्वादको भूलने लगी, ऐसे समयपर स्वामी समन्तभद्रने ही स्याद्वादको उजागर किया और स्याद्वादन्यायसे उन एकान्तोका समन्वय करके अनेकान्ततत्त्वकी व्यवस्था की। इनका विस्तृत परिचय और समयादिका निर्णय श्रद्धेय ५० जुगलकिशोरजी मुस्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक इतिहास-ग्रन्थमें दिया है। वह इतना प्रमाणपूर्ण, अविकल और शोधात्मक है कि उसमें सशोधन, परिवर्तन या परिवर्धनको गुन्जाइश प्रतीत नही होती। वह आज भी विलकुल नया और चिन्तनपूर्ण है। विशेप यह है कि समन्तभद्र उस समय हुए, जब दिगम्बर परम्परामें मुनियोमें वनवास ही प्रचलित था, चैत्यवास नही । जैसा कि उनके स्वयभूस्तोत्रगत श्लोक १२८ तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारके पद्य १४७ से प्रकट है । इसके सिवाय कुमारिल (ई० ६५०) और धर्मकोति (६३५) ने समन्तभद्रका ग्वण्डन किया है, अत वे उनसे पूर्ववर्ती हैं। आचार्य वादिराज3 (१०२५ ई०) के न्यायविनिश्चियविवरण (भाग १, पृ० ४३९) गत उल्लेख ("उक्त स्वामिसमन्तभद्रस्तुदुपजोविना भट्टेनाऽपि') से स्पष्ट है कि कुमारिलसे समन्तभद्र पूर्ववर्ती है । शोधके आधारपर इनका समय दूसरो-तीसरी शताब्दी अनुमानित होता है । समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित तत्त्व-व्यवस्था आचार्य समन्तभद्रने प्रतिपादन किया कि तत्त्व ( वस्तु ) अनेकान्तरूप है-एकान्तरूप नहीं और अनेकान्त विरोधी दो धर्मों सत्-असत्, शाश्वत-अशाश्वत, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि) के युगलक आश्रयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धर्मोका समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त सप्तवर्म-समुच्च विराट 'अनेकान्तात्मक तत्त्वसागरमे अनन्त लहरोकी तरह लहरा रहे हैं और इसीसे उसमे अनन्त सप्तकोटियां । (सप्तभङ्गियां) भरी पडी हैं । हाँ, दृष्टाको सजग और समदृष्टि होकर उसे देखना-जानना चाहिए । उसे यह | ध्यातव्य है कि वक्ता या ज्ञाता वस्तुको जब अमुक एक कोटिसे कहता या जानता है तो वस्तुमें वह धर्म 6 जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, प० १८० से १८७ । १ २ ३, यही ग्रन्थ, ‘अनुसधानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक कुछ प्रश्न और समाधान शीर्षक लेख ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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