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________________ तत्त्वार्थ सूत्रकारको इस सस्कृत गद्य-सूत्ररचनाके समय अनेक स्थितियोका सामना करना पडा होगा, क्योंकि उनके पूर्व श्रमणपरम्परामें प्राकृत भाषा में ही गद्य या पद्य ग्रन्योके रचनेकी अपनी परम्परा थी । सम्भ है उनके इस प्रयत्नका आरम्भमें विरोव भी किया गया हो और इसीसे इस गद्यसूत्र संस्कृतग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रको कई शताब्दियों तक किसी आचार्यने छुआ नही - उस पर किसीने कोई वृत्ति, टीका, वार्तिक, भाष्य आदिके रूपमें कुछ नही लिखा । देवनन्दि-पूज्यपाद (छठी शताब्दी) ही एक ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने उसपर तत्त्वार्थवृत्ति—सर्वार्थसिद्धि लिखी और उसके छिपे महत्त्वको प्रकट किया । फिर तो आगे अकलकदेव, विद्यानन्द, सिद्धसेन गणी आदिके लिए मार्ग प्रशस्त गया । इस सूत्र -प्रन्थमें वैशेषिकसूत्रकी तरह १० अध्याय है और आदि तथा अन्तमें एक-एक पद्य है । आदिका पद्य मङ्गलाचरणके रूपमें है और अन्तका पद्य ग्रन्थसमाप्ति एव लघुता सूचक है । वे ये है आदि पद्य - मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तार कर्मभूभृताम् । ज्ञातार विश्वतत्वाना वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ अन्तिम पद्य अक्षर-मात्र-पद-स्वरहीन व्यजन सधि-विवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्य को न विमुह्यति शास्त्र - समुद्रे ॥ वस्तुत आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्त्वार्थस्त्रका समग्र जैन वाङ्मयमें सम्मानपूर्ण एव विशिष्ट स्थान है । न-3 else ge २९७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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