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________________ अनुसन्धान - विषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर कितने ही पाठको व इतर सज्जनोको अनुसन्धानादि विषयक शकाएँ उत्पन्न होती हैं और वे इधरउधर पूछते हैं । कितनोको उत्तर ही नही मिलता और कितनोको उनके पूछनेका अवसर नही मिल पाता । इससे उनकी शकाएँ उनके हृदयमें हो विलीन हो जाती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त ही बनी रहती है । अतएव उनके लाभकी दृष्टिसे यहाँ एक 'शका समाधान' प्रस्तुत है । १ शका - कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने 'विद्यानन्दमहोदय' नामक एक बहुत बडा ग्रन्थ लिखा है, जिसके उल्लेख उन्होने स्वय अपने श्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोमें किये हैं । परन्तु उनके बाद होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि बडे-बडे आचार्यों में से किसीने भी अपने ग्रन्थोमें उसका उल्लेख नही किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट हो गया ? १ समाधान नही, विद्यानन्दके जीवनकालके बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है । विक्रमकी बारहवी तेरहवी शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान् वादी देवसूरिने अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा०, पृ० ३४९) में 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रन्यकी एक पवित उद्धृत करके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है । यथा'यत्तु विद्यानन्द महोदये च ' कालान्तराविस्मरणकारण हि धारणाभिधान ज्ञान सस्कार प्रतीयते' इति वदन् सस्कारधारणयोरेकार्थ्य मचकथत्' । इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीन सौ चारसो वर्ष बाद तक भी विद्वानोकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका विषय रहा है । आश्चर्य नही कि उसकी सैकडों कापिया न हो पाने से वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नही हो सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिकी तरह वादिराज आदिने अपने ग्रन्थोमें उसके उद्धरण ग्रहण न किये हो । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित है कि वह बनने के कई सौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा है । सम्भव है वह अब भी किसी लायब्ररी या सरस्वती भण्डारमे दीमकोंका भक्ष्य बना पडा हो । अन्वेषण करनेपर अकलङ्कदेव के प्रमाणसग्रह तथा अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर शास्त्रभडारमे मिल जाय; क्योकि उनके यहाँ शास्त्रोको सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोके हाथोंमें रही है और अब भी वह कितने ही स्थानों पर चलती है। हाल में हमें मुनि पुण्यविजयजीके अनुग्रहसे वि० स० १४५४ की लिखी अर्थात् साढ़े पाचसौ वर्ष पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रकी प्रति प्राप्त हुई है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकडों सूक्ष्म तथा स्थूल अशुद्धियो और त्रुटित पाठोको प्रदर्शित करती है। यह भी प्राचीन प्रतियोकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण है । इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्रभडारोमें मिलनेकी अधिक आशा है । अन्वेषकोको उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये । २ शका - विद्वानोंसे सुना जाता है । कि बड़े अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकलक देवके 'प्रमाणसग्रह' पर 'प्रमाण सहभाष्य' या 'प्रमाणसग्रहालकार' नामका बृहद् टोका-ग्रन्थ लिखा है परन्तु आज वह उपलब्ध नही हो रहा। क्या उसके अस्तित्व - प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोकी उक्त अनुश्रुतिको पोषण मिले ? - २८४ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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