SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन्होने अरहन्तमें अनुमानसे सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की है और उसे दोषावरणोंसे रहित, इन्द्रियादि निरपेक्ष तथा सूक्ष्मादिविषयक बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि कृमारिलने समन्तभद्र की ही उक्त मान्यता का खण्डन किया है। अकलक द्वारा इसका भी सबल जवाब इसका सबल प्रमाण यह है कि कुमारिलके उक्त खण्डनका भी जवाब अकलकदेवने दिया है। उन्होने बडे सन्तुलित ढगसे कहा है कि 'अनुमान द्वारा सुप्रसिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) आगमके बिना और आगम केवलज्ञानके विना सिद्ध नही होता, यह सत्य है, तथापि दोनोमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योकि पुरुषातिशय (केवलज्ञान) प्रतीतिवशसे माना गया है । इन (केवलज्ञान और आगम) दोनोमें बीज और अकूरकी तरह अनादि प्रबन्ध (प्रवाह-सन्तान) है ।' ___ अकलकके इस उत्तरसे बिलकुल स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने जो अनुमानसे अरहन्तके केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, उसीका खण्डन कुमारिलने किया है और जिसका सयुक्तिक उत्तर अकलकने उक्त प्रकारसे दिया है । केवलज्ञानके साथ 'अनुमानविम्भितम्'-'अनुमानसे सिद्ध' विशेषण लगाकर तो अकलक (वि० स० ७वी शती) ने रहा-सहा सन्देह भी निराकृत कर दिया है, क्योकि अनुमानसे सर्वज्ञविशेष (अरहन्तमें केवलज्ञान) की सिद्धि समन्तभद्र ने की है। इस उल्लेख-प्रमाणसे भी प्रकट है कि कुमारिलने समन्तभद्रकी आप्तमीमासाका खण्डन किया और जिसका उत्तर समन्तभद्रसे कई शताब्दी बाद हुए अकलकने दिया । है । समन्तभद्रको कुमारिलका परवर्ती माननेपर उनका जवाब वे ही देते, अकलकको उसका अवसर ही नहीं आता। कुमारिल द्वारा समन्तभद्रका अनुसरण (३) कुमारिलने समन्तभद्रका जहाँ खण्डन किया है वहां उनका अनुगमन भी किया है। विदित है जैन दर्शनमें वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन रूप माना गया है। समन्तभद्रने लौकिक और आध्यात्मिक दो उदाहरणो द्वारा उसकी समर्थ पुष्टि की है। इन दोनो उदाहरणोके लिए उन्होने एक-एक १ एव यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात्सिद्धचेत न च तेन विनाऽऽगम ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत । प्रभव. पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ।।-न्या० वि० का० ४१२-१३ २ मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ ।। दन्व सल्लक्खणय उप्पादन्वयधुवत्तसजुत । गुणपज्जयासय वा ज त भण्णति सन्वण्हू ।।-कुन्दकुन्द, पचास्ति०, गा० १० अथवा-'सद्रव्यलक्षणम्', उत्पादव्ययनौव्ययुक्त सत्।'-उमास्वाति (गृद्धपिच्छ), त० सू०५-२९, ३०। ४ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोद-माध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रत । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्व त्रयात्मकम् ।।-आ० मी०, का०, ५९, ६० ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy