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________________ का साधक है और जो किसी एकका निर्णायक नही है। इसीसे कुमारिलने 'तुल्यहेतुषु सर्वेषु' कह कर उसे अथवा उस जैसे प्रमेयत्व आदि हेतुओको सर्वज्ञका अनवधारक (अनिश्चायक) कहा है । इतना ही नहीं, उन्होने एक अन्य कारिकाके द्वारा समन्तभद्रके इस 'अनुमेयत्व' हेतुकी तीव्र आलोचना भी की है और कहा है कि जो प्रमेयत्व आदि हेतु सर्वज्ञके निषेधक है, उनसे सर्वज्ञकी सिद्धि कैसे की जा सकती है? अकलक द्वारा उत्तर: इसका सबल उत्तर समन्तभद्रकी आप्तमीमासाके वितिकार अकलकदेवने दिया है। अकलक कहते है कि प्रमेयत्व आदि तो अनुमेयत्व' हेतुके पोपक है:-अनुमेयत्व हेतुकी तरह प्रमेयत्व आदि सर्वज्ञके सद्भावके साधक हैं, तब कौन समझदार उन हेतुओंसे सर्व ज्ञका निषेध या उसके सद्भावमें सन्देह कर सकता है।' यह सारी स्थिति बतलाती है कि कुमारिलने समन्तभद्र का खण्डन किया है, समन्तभद्र ने कुमारिलका नही । यदि समन्तभद्र कुमारिलके परवर्ती होते तो कुमारिलके खण्डनका उत्तर स्वय समन्तभद्र देते अकलकको उनका जवाब देनेका अवसर नही माता तथा समन्तभद्रके 'अनुमेयत्व' हेतुका समर्थन करनेका भी उन्हें मौका नही मिलता (२) अनुमानसे सर्वज्ञ-सामान्यकी सिद्धि करनेके उपरान्त समन्तभद्रने अनुमानसे ही सर्वज्ञ-विशेषकी सिद्धिका भी उपन्यास करके उसे 'अर्हन्त में पर्यवसित किया है। जैसा कि हम ऊपर आप्तमीमासा कारिका ६ और ७ के द्वारा देख चुके हैं। कुमारिलने समन्तभद्रकी इस विशेष सर्वज्ञताकी सिद्धिका भी खण्डन किया है । अर्हन्तका नाम लिए बिना वे कहते हैं कि 'जो लोग जीव (अर्हन्त) के इन्द्रियादि निरपेक्ष एव सूक्ष्मादि विषयक केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की कल्पना करते हैं वह भी युक्त नही है, क्योकि वह आगमके बिना और आगम केवलज्ञानके बिना सम्भव नही है और इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होनेके कारण अरहन्तमें भी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती।' ज्ञातव्य है कि जैन अथवा जैनेतर परम्परामें समन्तभद्रसे पूर्व किसी दार्शनिकने अनुमानसे उक्त प्रकार विशेष सर्वज्ञकी सिद्धि की हो, ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नही होता। हाँ, आगमोमें केवलज्ञानका स्वरूप अवश्य विस्तारपूर्वक मिलता है, जो आगमिक है, आनुमानिक नही है । समन्तभद्र ही ऐसे दार्शनिक है, १ मी० श्लो० चो० सू० का० १३२ । २ 'तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षण पुष्णाति तं कथ चेतन प्रतिषेद्ध मर्हति सशयितु वा ।' -अष्टश० का० ५। ३ अकलकके उत्तरवर्ती बोद्ध विद्वान् शान्तिरक्षितने भी कुमारिलके खण्डनका जवाब दिया है । उन्होंने लिखा हैएव यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षणा । निहन्तु हेतवोऽशक्ता को न त कल्पयिष्यति । -तत्वस० का०८८५ । ४ आप्तमी०, का० ६,७, वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, द्वि० स० १९७८ । ५ एव यै केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिण । सूक्ष्मातीतादिविषय जीवस्य परिकल्पितम् ।। नर्ते तदागमात्सिद्धचेत् न च तेनागमो विना। -मीमासा श्लो०८७। -२६२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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