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________________ "इण्डावसपिण्या स्त्रीपु सम्यग्दृष्टय किन्नोत्पद्यन्ते, इहि चेत, नोत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवात् । अस्मादेवात् द्रव्यस्त्रीणा निति सिद्धघेत्, इति चेत्, न, सवामस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थिताना सयमानुपपत्ते । भावसयमस्तासा सवाससामप्यविरुद्ध , इति चेत्, न तासा भावसयमोऽस्ति, भावासयमाविनाभाविवस्त्रायुपादानान्यथानुपपत्ते । कय पुनस्तासु चर्तुदश गुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्पीविशिष्टमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात् । भाववेदो वादरक्षायान्नोपर्यस्तीति न तप चतुर्दशगुणस्थानाना सम्भव इति चेत, न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात । गतिस्तु प्रधाना न साऽराद्विनश्यति । वेदविशेषणाया गतौ न तानि सम्भवन्ति, इति चेत, न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्वघपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात ।"-धवला, १११ ९३, प्रथम पुस्तक, पृ० ३३२-३३३ । यहां मबसे पहले यह शका उपस्थित की गयी है कि यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं। लेकिन हुण्डावसर्पिणी (मापवादिक काल) में स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि क्यो नही उत्पन्न होते ? (इस शकामे यह प्रतीत होता है कि वीरसेन स्वामीके सामने कुछ लोगोंकी हुण्डावसपिणी कालमें स्थियो सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होनेकी मान्यता रही और इसलिए इस शुका द्वारा उनका मत उपस्थित करके उसका उन्होने निराकरण किया है। इसी प्रकारसे उन्होंने मागे द्रव्यस्त्रीमुक्तिको मान्यताको भी उपस्थित किया है, जो सूत्रकारके सामने नही थी और वीरमनके सामने वह प्रचलित हो चुकी थी और जिसका उन्होंने निराकरण किया हैं । हुण्डावसर्पिणी कालका स्वरूप ही यह है कि जिसमें अनहोनी वातें हो जायें, जैसे तीर्थङ्करके पुत्रीफा होना, चक्रवर्तीका अपमान होना आदि । और इसलिये उक्त शकाका उपस्थित होना असम्भव नही है ।) वीरसेन स्वामी इस शकाका उत्तर देते हैं कि हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। इसपर प्रश्न हुआ कि इसमें प्रमाण क्या है ? अर्थात् यह कैसे जाना कि हुण्डावसपिणीमें स्त्रियोमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नही होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी आगम सूत्रवाक्यसे उक्त बात जानी जाती है। अर्थात् प्रस्तुत ९२, ९३३ सूत्रोंमें पर्याप्त मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान प्रतिपादित किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और भाव दोनों ही तरहकी स्त्रियोमें पैदा नही होते । अतएव सुतरा सिद्ध है कि हण्डावपिणीमें भी स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि पैदा नहीं होते। यहाँ हम यह उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं कि प० मक्खनलालजी शास्त्रीने टोकोक्त 'स्त्रीषु' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटो भल की है। 'स्त्री' पदका विलकुल सीधा सादा अर्थ है और वह है 'स्त्रियोमें' । वहां द्रव्य और भाव दोनो हो प्रकारकी स्त्रियोका ग्रहण है। यदि केवल द्रव्यस्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता हो वीरसेन स्वामी अगले 'द्रष्यस्त्रीणा' पदकी तरह यहाँ भी 'द्रव्यस्त्रीष" पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्त-विरोव अनिवार्य था, क्योकि उससे द्रव्यस्त्रियोंमें ही सम्यग्दृष्टियोंके उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियोमें नही। किंतु वे ऐसा सिद्धान्स-विरुद्ध असगत कथन कदापि नहीं कर सकते थे और इसीलिए उन्होंने 'द्रव्यस्त्रीषु' पदका प्रयोग न करके 'स्त्रीषु' पदका प्रयोग किया है जो सर्वथा सिद्धान्ताविरुद्ध और सगत है। यह स्मरण रहे कि सिद्धान्तमें भावस्त्रीमुक्ति तो इष्ट है, द्रव्यस्त्रीमुक्ति इष्ट नही है। किन्तु सम्यग्दृष्टि-उत्पत्ति-निषेध द्रव्य और भावस्थी दोनोमें ही इष्ट है । अत पडितजीका यह लिखना कि "९३वें सूबमें पर्याप्त अवस्थामें ही जव द्रव्यस्त्रीके चौथा गुणस्थान सूत्रकारने बताया है तब टीकाकारने यह शका उठाई है कि द्रव्यस्थी पर्याय में सम्यग्दष्टि क्यों उत्पन्न नही होते हैं ? उत्तरमें कहा गया है कि द्रव्यस्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नही होते हैं । क्यो नही उत्वन्न होते है ? इसके लिये आप
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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