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जान पड़ता है कि साधुओमें जव वस्नग्रहण चल पडा तो स्त्रीमक्तिका भी समर्थन किया जाने लगा. क्योकि उनकी सचेलता उनकी मुक्तिमे बाधक थी। वस्त्रग्रहणके वाद पुरुप अथवा स्त्री किमीके लिए भी मचेलता वाधक नही रही । यही कारण है कि याद्य जैन साहित्यमे स्त्रीमुक्तिका समर्थन अथवा निषेध प्राप्त नही होता। अत सिद्ध है कि सूत्रकारको द्रव्य स्त्रियोके ५ गुणस्थानोका बतलाना उस समय आवश्यक हो न था और इसलिए पट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्यानोका विधान अनुपलब्ध है।
(ख) यह पहले कहा जा चुका है कि पट्खण्डागमका समस्त वर्णन भावको अपेक्षासे है । अत एव उसमें द्रव्यवेद विषयक वर्णन अनुपलब्ध है। अभी हालमें इस लेखको लिखते ममय विद्वद्वर्य प० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका 'जैन बोधक' में प्रकाशित लेख पढने को मिला । उसमें उन्होने 'खुदावध' के उल्लेखके आधारपर यह बतलाया है कि 'पट्खण्डागम' भरमें समस्त कथन भाववेदकी प्रधानतामे किया गया है । अतएव वहाँ यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए कि 'पट्खण्डागम' में द्रश्यस्त्रियाके लिए गुणम्यान-विनायक सूत्र क्यो नही आया? उन्होने बतलाया है कि "पखण्डागमको रचनाके समय द्रव्यवेद और भाववेद ये वेदके दो भेद ही नही थे उम समय तो सिर्फ भाववेद वर्णनमें लिया जाता था । पटखण्डागमको तो जाने दीजिये जोवकाण्ड में भी द्रव्यस्त्रियोके ५ गुणस्थानोका विधान उपलब्ध नहीं होता और इसलिये यह मानना चाहिये कि मूल ग्रथोमें भाववेदकी अपेक्षासे ही विवेचन किया जाता रहा, इसलिये मूलग्रथो अथवा सूपग्रन्धोमे द्रव्यवेदकी अपेक्षा विवेचन नही मिलता है। हां, चारित्रग्रथोमें मिलता है सो वह ठीक ही है। जिन प्रश्नोका सम्बन्ध मुख्यतया चरणानुयोगमे है उनका समाधान वही मिलेगा, करणानुयोगमें नही ।" पडितजाका यह सप्रमाण प्रतिपादन युक्तियुक्त है । दूसरी बात यह है कि केवल पट्खण्डागमपरसे ही स्त्रीमुक्ति-निषेधको - दिगम्बर मान्यताको कण्ठत प्रतिपादित होना आवश्यक हो तो सर्वथा वस्त्रत्याग और कवलाहार-निषेधकी दिगम्बर मान्यताओको भी उसमे कण्ठत प्रतिपादित होना चाहिए। इसके अलावा, सूत्रोमे २२ परिपहाका वर्णन भी दिखाना चाहिए । नया कारण है कि तत्त्वार्थसूयकारकी तरह पट्खण्डागमसूत्रकारने भी उक्त परिपहोके प्रतिपादक सूत्र क्यो नही रचे? इससे जान पडता है कि विषय निरूपणका सकोच-विस्तार मूत्रकारकी दृष्टि या विवेचन शैलीपर निर्भर है। अत परखण्डागममें भाववेद विवक्षित होने से द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोका विधान उपलब्ध नही होता ।
३ तीसरी युक्तिका उत्तर यह है कि 'पर्याप्त' शब्दके प्रयोगसे वहाँ उमका द्रव्य अर्थ बतलाना सर्वथा भूल है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रकृति है और उसके उदय होनेपर जीव पर्याप्तक कहा जाता है। अत उसका भाव भी अर्थ है । दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेचनो और अकलकदेवके तत्त्वार्थवातिकगत प्रतिपादनसे पर्याप्त मनुष्यनियोके १४ गुणस्थानोका निरूपण होनेसे वहां 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जा सकता है और इसलिये 'पज्जतमणुस्मिणी' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् मैद्धान्तिक भूल है । मैं इस सम्बन्धमें अपने "संजदपदके सम्बन्धमें अकलंफदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत" शोषक लेख में पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ।
४ हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'मजद' पदके विरोधमें यह कैसे कहा जाता है कि "वीरसेनम्यामी पी टोका उक्त सूत्रमें 'सजद' पदका समर्थन नहीं करती, अन्यथा टोकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता।" पयोकि टोका दिनकर-प्रकाशकी तरह 'सजद' पदका समर्थन करती है। यदि सूममें 'सजद' पद न हो तो टोफागत समस्त शका-समाधान निराधार प्रतीत होगा। मैं टीफागत उन पद-वापयादिकारी उपस्थित करता है जिनगे 'सनद' पदका अभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उनका समर्थन स्पष्टत जाना जाता है । यथा
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