________________
पुलगेरेका हुलगिरि या होलागिरि आदि बन गया हो तो आश्चर्यकी बात नही है । अत जब तक कोई दूसरे स्पष्ट प्रमाण हलगिरि या होलागिरिके अस्तित्वके साधक नही मिलते तब तक प्रेमीजीके उक्त विचार और अनुमानको ही मान्य करना उचित जान पड़ता है।
धारा-पाश्र्वनाथ धाराके पार्श्वनाथके सम्बन्धमे मदनकोतिके पद्य ५ के उल्लेखके सिवाय और कोई परिचायक उल्लेख अभी तक नही मिले और इस लिये उसके बारे में इस समय विशेप कुछ नहीं कहा जा सकता।
बृहत्पुर-बृहदेव मदन कीतिने पद्य ६ में वृहत्पुरके बृहद्देवकी ५७ हाथकी विशाल प्रस्तर मूर्तिका उल्लेख किया है, जिसे अर्ककीर्ति नामके राजाने बनवाया था। जान पडता है यह 'बृहत्पुर' बडवानीजी है, जो उसीका अपभ्रंश (बिगडा हुआ) प्रयोग है और 'बृहद्देव' वहांके मूलनायक आदिनाथका सूचक है । बडवानीमें श्रीआदिनाथकी ५७ हाथ की विशाल प्रस्तर मूर्ति प्रसिद्ध है और जो बावनगजाके नामसे विख्यात है। वृहद्देव पुरुदेवका पर्यायवाची है और पुरुदेव आदिनाथका नामान्तर है । अतएव वृहत्पुरके वृहदेवसे मदन कीतिको वडवानीके श्रीआदिनाथ के अतिशयका वर्णन करना विवक्षित मालूम होता है। इस तीर्थके बारेमें सक्षिप्त परिचय देते श्रीयुत प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अपनी 'जैनधर्म' नामक पुस्तकके 'तीर्थक्षेत्र' प्रकरण (पृ० ३३५) में लिखा है -
'बडवानीसे ५ मील पहाडपर जानेसे बडवानी क्षेत्र मिलता है। क्षेत्रकी वन्दनाको जाते हुए मबसे पहले एक विशालकाय मूतिके दर्शन होते हैं। यह खडी हुई मूर्ति भगवान ऋपभदेवकी है, इसकी ऊँचाई ८४ फीट है। इसे बावनगजाजी भी कहते है । स० १२२३ में इसके जीर्णोद्धार होनेका उल्लेख मिलता है । पहाडपर २२ मन्दिर हैं । प्रतिवर्ष पौष सुदी ८ से १५ तक मेला होता है।'
बडवानी मालवा प्रान्तका एक प्राचीन प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है और जो इन्दौरके पास है । निर्वाणकाण्ड' और अपभ्रश निर्वाणभक्ति के रचयितामोने भी इस तीर्थका उल्लेख किया है।
जैनपुरके दक्षिण गोम्मटदेव । 'जैनपुर' जैनबिद्री व श्रवणवेलगोलाका प्राचीन नाम है । गङ्गनरेश राचमल्ल (ई० ९७४-९८४) के सेनापति और मन्त्री चामण्डरायने यहां वाहबलि स्वामीको ५७ फीट ऊंची खहगासन विशाल पाषाणमूर्ति बनवाई थी। यह मूर्ति एक हजार वर्षसे जाडे, गर्मी और वरसातकी चोटोको सहती हई उसी तरह आज भी वहां विद्यमान है और ससारकी प्रसिद्ध वस्तुमोमेंसे एक है। इस मतिकी प्रशसा करते हुए काका कालेलकरने अपने एक लेखमें लिखा है
'मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजक और कान्तिमान है। एक ही पत्थरसे निमित इतनी सुन्दर मूर्ति ससारमें और कही नही। इतनी बडी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमको भी यह अधिकारिणी बनती है । धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछेकी ओर ऊपरकी पपडी खिर पडनेपर भी इस मूर्तिका लावण्य खण्डित नही हुआ है।' १ नि० का० गाथा न० १२। २ अ०नि० म० गाथा न० ११ । ३ जैनधर्म पृ० ३४२ से उद्धृत ।
-२३५