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शहजिन (पार्श्वनाथ) का आविर्भाव हुमा तो वह चल सकी। इस अतिशयके कारण हुलगिरि शह्वजिनेन्द्रका तीर्थ माना जाने लगा। अर्थात् तबसे शङ्खजिनतीर्थ प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ।" मदनकीतिसे एक शताब्दी बाद होनेवाले जिनप्रभसूरि अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'शङ्खपुर-पार्श्वनाथ' नामक कल्पमें शङ्खजिनका परिचय देते हुए लिखते हैं कि "प्राचीन समयकी बात है कि नवमे प्रतिनारायण जरासन्ध अपनी सेनाको लेकर राजगृहसे नवमे नारायण कृष्णसे युद्ध करनेके लिये पश्चिम दिशाकी ओर गये । कृष्ण भी अपनी सेना लेकर द्वारकासे निकलकर उसके सम्मुख अपने देशको सीमापर जा पहुंचे। वहाँ भगवान् अरिष्टनेमिने शव बजाया
और शखेश्वर नामका नगर बसाया । शङ्खकी आवाजको सुनकर जरासन्ध क्षोभित हो गया और जरा नामकी कुलदेवताको आराधना करके उसे कृष्णकी सेनामे भेज दिया । जराने कृष्णको सारी सेनाको श्वास रोगसे पीडित कर दिया। जब कृष्णने अपनी सेनाका यह हाल देखा तो चिन्तातुर होकर अरिष्टनेमिसे पूछा कि 'भगवन् । मेरी यह सेना कैसे निरुपद्रव (रोगरहित) होगी और कैसे विजयश्री प्राप्त होगी।' तव भगवान्ने अवधिज्ञानसे जानकर कहा कि 'भूगर्भ में नागजातिके देवोद्वारा पूजित भाविजिन पार्श्वकी प्रतिमा स्थित है । यदि तुम उसकी पूजा-आराधना करो तो उससे तुम्हारी सारी सेना निरुपद्रव हो जायगी और विजयश्री भी मिलेगी।' इस बातको सुनकर कृष्णने सात मास और तीन दिन तक निराहार विधिसे नागेन्द्रकी उपासना की। नागेन्द्र प्रकट हुआ और उससे सबहुमान पार्श्वजिनेन्द्रकी प्रतिमा प्राप्त की। बडे उत्सवके साथ उसकी अपने देवताकै स्थानमें स्थापनाकर त्रिकाल पूजा की। उसके अभिषेकजलको सेनापर छिडकते ही उसका वह सब श्वासरोगादि उपद्रव दूर हो गया और सेना लडनेके समर्थ हो गई । जरासन्ध और कृष्ण दोनोका युद्ध हुआ, युद्ध में जरासन्ध हार गया और कृष्णको विजयश्री प्राप्त हुई। इसके बाद वह प्रतिमा समस्त विघ्नोको नाश करने और ऋद्धि-सिद्धियोको पैदा करनेवाली हो गई। और उसे वही शङ्खपुरमें स्थापित कर दिया। कालान्तरमें वह प्रतिमा अन्तर्धान हो गई। फिर वह एक शवकूपमें प्रकट हुई । वहाँ वह आज तक पूजी जाती है और लोगोके विघ्नादिको दूर करती है। यवन राजा भी उसकी महिमा (अतिशय) का वर्णन करते हैं।" मुनि शीलविजयजीने भी तीर्थमालामें एक कथा दी है जिसका आशय यह है कि 'किसी यक्षने श्रावकोसे कहा कि नौ दिन तक एक शखको फूलोमें रखो और फिर दसवें दिन दर्शन करो। इसपर श्रावकोने नौ दिन ऐसा ही किया और नवें दिन ही उसे देख लिया और तब उन्होने शङ्खको प्रतिमारूपमें परिवर्तित पाया, परन्तु प्रतिमाके पैर शङ्खरूप ही रह गये, अर्थात् यह दशवें दिनकी निशानी रह गई । शङ्खमेंसे नेमिनाथ प्रभु प्रकट हुए और इस प्रकार वे 'शङ्खपरमेश्वर' कहलाये।' निर्वाणकाण्ड और अपभ्रशनिर्वाणभक्तिके रचयिताओने भी होलागिरिके शहदेवका उल्लेख करके उनकी वन्दना की है। यथा
(क) वदमि होलागिरी सखदेव पि।'-नि० का० २४ । (ख) 'होलागिरि सखुजिणेंदु देउ,
विझणणरिंदु ण वि लद्ध छेउ ।'-अ० नि० भ० ।
यद्यपि अपभ्रशनिवणिभक्तिकारने विझण (विन्ध्य) नरेन्द्रके द्वारा उनकी महिमाका पार न पा सकनेका भी उल्लेख किया है, पर उससे विशेष परिचय नही मिलता। ऊपरके परिचयोमे भी प्राय कुछ विभिन्नता है फिर भी इन सब उल्लेखों और परिचयोंसे इतना स्पष्ट है कि शखजिन तीर्थ रहा है और जो
१ 'विविधतीर्थकल्प' १० ५२। २, प्रेमीजी कृत 'जनसाहित्य और इतिहास' (पृ० २३७) से उद्धृत ।
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