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________________ निवासी हैं और चतुर्थ नेमिचन्द्र उत्तर भारत (मालवा) के विद्वान् हैं । इन सब बातोसे प्रथम नेमिचन्द्र और चतुर्थ नेमिचन्द्र एक व्यक्ति न) है-वे दोनो एक दूसरेसे पृथक् एव स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखते हैं । ४ द्वितीय और तृतीय नेमिचन्द्र भी अभिन्न नही है, द्वितीय नेमिचन्द्र १२ वी शताब्दीके विद्वान हैं और तृतीय नेमिचन्द्र १६ वी शतीमें हुए है और इसलिए इनमें लगभग चारसौ वर्षका पौर्वापर्य है। ५ तृतीय और चतुर्थ नेमिचन्द्र भी एक नही है । १३ वी शताब्दी (वि० स० १३००) के ग्रन्थकार प० आशाधरजीने चौथे नेमिचन्द्रके द्रव्यसग्रहके नामोल्लेखपूर्वक तथा बिना नामोल्लेखके उसकी अनेक गाथाओको अनगारधर्मामतको स्वोपज्ञ-टीकामें उद्धृत किया है । अत चौथे नेमिचन्द्र स्पष्टतया प० आशाधरजीके पूर्ववर्ती अर्थात् १३ वी शताब्दीसे पहलेके है, जब कि तृतीय नेमिचन्द्र उनके उत्तरकालीन अर्थात १६ वी शतोमें हुए हैं। (ग) द्रव्यसग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र अब रह जाते हैं दुसरे और चौथे नेमिचन्द्र । सो ये दोनो विद्वान निम्न आधारोसे एक व्यक्तिमा होते हैं। १५० आशाघरजी (वि० स० १३००) ने वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवका सागारधर्मामृत तथा अनगारधर्मामृत दोनोकी टीकाओमें उल्लेख किया है और वसुनन्दिने द्वितीय नेमिचन्द्र का अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है तथा उन्हें श्रीनन्दिका प्रशिष्य एव नयनन्दिका शिष्य बतलाया है। ये नयनन्दि यदि वे ही नयनन्दि हैं, जिन्होने 'सुदंसणचरिउ' की रचना की है और जिसे उन्होने धारामे रहते हुए राजा भोजदेवके कालमे वि० स० ११०० में पूर्ण किया है, तो द्वितीय नेमिचन्द्र नयनन्दिसे कुछ ही उत्तरवर्ती और वसुनन्दिसे कछ पूर्ववर्ती अर्थात वि० स० ११२५के करीबके विद्वान् ठहरते हैं । उधर चौथे नेमिचन्द्र (द्रव्यसनहकार) का भी समय प० आशाधरजीके ग्रन्थोमें उनका उल्लेख होने तथा ब्रह्मदेव द्वारा उनके द्रव्यसग्रहकी टीका लिखी जानेसे उनसे पूर्ववर्ती अर्थात वि० स० की १२ वी शताब्दी सिद्ध होता है। इसलिए बहत सम्भव है कि ये दोनो नेमिचन्द्र एक हो।। २. वसुनन्दिने अपने गुरु नेमिचन्द्र को 'समस्त जगतमें विख्यात' बतलाया है। उधर 'सुदसणचरित' के कर्ता नयनन्दि भी अपनेको 'जगत-विख्यात' प्रकट करते है। इससे ध्वनित होता है कि वसुनन्दिको अपने द्वारा नेमिचन्द्र के गुरुरूपसे उल्लिखित नयनन्दि वे ही नयनन्दि अभिप्रेत हैं जो 'सुवंसणचरिउ' के कर्ता है और उन्हीके जगत-विख्यात जैसे गुणोको वे उनके शिष्य और अपने गुरु (नेमिचन्द्र) में भी देख रहे हैं। इससे जान पडता है कि वसुनन्दिके उल्लिखित नयनन्दि और 'सुवसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि अभिन्न है १ सा० घ० टी० ४-५२, अनगा०प० टी० ५-६६, ८-३७ और ८-८८ । २ वसुनन्दिश्रावका०, गा० ५४३, ५४४ । ३ वही, गा० ५४०, ५४२ । ४ णिव-विक्कम-कालहो ववगएसु। एयारह-सवच्छर-सएसु ॥ तहिं केवलि-चरिउ अमयच्छरेण । णयणदी विरयउ वित्थरेण ।।-सुदसणचरिउ, अन्तिम प्रशस्ति । ५ पढम-सीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयणदी । चरित सुदसणणाहहो तेण अवाहहो विरइउ । सुदंसणचरिउ, अन्तिमप्रश० ४ । -२०७
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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