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________________ का ध्यान करके मोक्षको प्राप्त करता है। पर मिथ्यादृष्टि तीन निदानजनित पुण्यसे भोगोको पाकर, अर्धचक्रीरावणादिकी तरह, पीछे नरकको जाता है।' इस शवा-समाधानसे सम्यग्दृष्टिकी दृष्टिसे पुण्य-पापकी हेयतापर अच्छा प्रकाश पडता है। इसी तरह इस टीकामें ब्रह्मदेवने और भी कई शहा-समाधान प्रस्तुत किये हैं, जो टीकासे ही ज्ञातव्य है। (छ) अन्य टीकाएँ उक्त सस्कृत-टीकाके अतिरिक्त अन्य भाषाओमें भी इसके रूपान्तर हुए हैं। मराठीमें यह गाधी नेमचन्द बालचन्द द्वारा कई बार छप चुका है। अग्रेजीमें भी इसके दो सस्करण क्रमश सन् १९१७ और १९५६ में निकले हैं और दोनोंके रूपान्तरकार एव सम्पादक प्रो० घोषाल हैं। हिन्दीमें तो इसकी कई विद्वानोंद्वारा अनेक व्याख्याएँ लिखी गई हैं और वे सब प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें वा० सूरजभानजी वकील, ५० हीरालालजी शास्त्री, प० मोहनलालजी शास्त्री और १० भवनेन्द्रजी 'विश्व' की टीकाएँ उल्लेखनीय हैं। (ज) द्रव्यसंग्रह-वचनिका ब्रह्मदेवकी सस्कृत-टीकाके बाद और उक्त टीकाओसे पूर्व पण्डित जयचन्दजी छावडाने इसपर देशभाषामय (बढारी-राजस्थानी में) वचनिका लिखी है। यह वनिका वि० स० १८६३ (सन् १८०६) में रची गयी है, जो लगभग १६० वर्ष प्राचीन है और अब पहली बार प्रकाशमें आ रही है । इसमें गाथाओका सक्षिप्त अर्थ व उनका भावार्थ दिया गया है। भाषा परिमार्जित, प्रसादपूर्ण और सरल है । स्वाध्यायप्रेमियोके लिए यह बही उपयोगी है। प० जयचन्दजीने अपनी इस वचनिफाका आधार प्राय ब्रह्मदेवकी सस्कृतटीकाको बनाया है। तथा उसीके आधारसे अनेक शहा-समाधान भी दिये हैं। वचनिकाके अन्तमें उन्होने स्वय लिखा है कि 'याका विशेष व्याख्यान याकी टीका. ब्रह्मदेव आचार्यकृत है. तात नानना।' इसमें कई चर्चाएँ बहे महत्त्वकी है और नयी जानकारी देती है। (झ) द्रव्यसंग्रह-भाषा उक्त वचनिकाके बाद प० जयचन्दजीने द्रव्यसग्रहका चौपाई-बद्ध पद्यानुवाद भी रचा है, जिसे उन्होने 'द्रव्यसंग्रह-भाषा' नाम दिया है। एक गाथाको एक ही चौपाईमें बडे सुन्दर ढग एव कुशलतासे अनूदित किया गया है और इस तरह ५८ गाथाओकी ५८ चौपाइयाँ, आदिमें एक और अन्तमे दो इस प्रकार ३ दोहे, सब मिलाकर कुल ६१ छन्दोमें यह 'द्रव्यसग्रह-भाषा' समाप्त हुई है। मारम्भके दोहामें मङ्गल और छन्दोंके माध्यमसे द्रव्यसग्रहको कहनेकी प्रतिज्ञा की है। तथा अन्तके दो दोहोमें प्रथम (न ६०) के द्वारा अपनी सवत्सर विक्रमतणू, अठदश-शत पयसाठ । श्रावणवदि चोदशि दिवस, पूरण भयो सुपाठ ।।५।। -प्रस्तुत वचनिका, ३रा अधिकार, पृ०७४ । द्रव्यसग्रहभाषाका आदि और अन्तभाग, पृ० ७५ व ८०। देव जिनेश्वर वदि करि, वाणी सुगुरु मनाय । करू द्रव्यसग्रहतणी, भाषा छद वणाय ॥१॥ -~-प्रस्तुत वचनिका पृ० ८० । ३ -२०४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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