SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दिका'। दूसरा ग्रन्थ हैं गन्धर्वाराधना | मालूम नहीं, यह सम्भव है भगवती आराधनाको ही गन्धर्वाराधना कहा गया हो । नही है | (च) महत्त्वपूर्ण शङ्का समाधान इसमें कई शङ्का-समाधान बड़े महत्त्वके हैं । एक जगह शङ्का की गई है कि सम्यग्दृष्टि जीवके पुण्य और पाप दोनो ही हेय है, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? इसका समाधान करते हुए ब्रह्मदेव लिखते हैं कि ' जैसे कोई व्यक्ति किसी दूसरे देशमें स्थित मनोहर स्त्रीके पाससे आये पुरुषोका उस स्त्रीकी प्राप्ति के लिए दान (भेंट), सम्मान आदि करता है, उसी तरह सम्यग्दृष्टि जीव भी उपादेयरूपसे अपने शुद्ध आत्माकी ही भावना करता है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे उस निज-शुद्ध आत्म-भावनामें असमर्थ होता हुआ निर्दोष पर - मात्मस्वरूप अर्हन्त और सिद्धो तथा उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय एव साधुओकी परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए और विषय-कषायोको दूर करने के लिए दान, पूजा आदिसे अथवा गुणस्तुति आदिसे परम भक्ति करता है । इससे उस सम्यग्दृष्टि जीवके भोगोकी आकाक्षा आदि निदानरहित परिणाम उत्पन्न होता है। उससे उसके बिना चाहे विशिष्ट पुण्यका आस्रव उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कुटुम्बियो ( कृषको) को बिना चाहे पलाल मिल जाता है । उस पुण्यसे वह स्वर्ग में इन्द्र, लौकान्तिक देव आदिकी विभूति पाकर वहाँकी विमान, परिवार आदि सम्पदाको जीर्ण तृणके समान मानता हुआ पाँच महाविदेहोमे पहुँच कर देखता है कि 'यह वह समवसरण है, ये वे वीतराग सर्वज्ञदेव है, और ये वे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक गणधरदेवादिक है, जिनके विषयमें हम पहले सुना करते थे । उन्हें इस समय प्रत्यक्ष देख लिया' ऐसा मानकर धर्ममें बुद्धिको विशेष दृढ करके चौथे गुणस्थानके योग्य अपनी अविरत अवस्थाको न छोड़ता हुआ भोगोका अनुभव होनेपर भी धर्मध्यानपूर्वक समय यापनकर स्वर्गसे आकर तीर्थंकरादि पदोके मिलने पर भी पूर्व भवमे भावना किये विशिष्ट भेदज्ञानकी वासनाके बलसे मोह नही करता है । इसके पश्चात् जिनदीक्षा लेकर पुण्य-पापरहित निज परमात्मा ग्रन्थ कव और किसके द्वारा रचा गया । परन्तु जो उद्धरण दिया गया है वह उसमें १ प० नाथूरामजी प्रेमी, 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० ८६ । २ तहि "तुसमास घोसतो शिवभूदी केवली जादो' इत्यादि गन्धर्वाराधनादिभणित व्याख्यान कथ घटते । - स० टी० पृ० २३३ । ३ 'सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथ पुण्य करोतीति ? तत्र युक्तिमाह-यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणा तदर्थे दानसन्मानादिक करोति तथा सम्यग्दृष्टिरभ्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति । चारित्र मोहोदयात्तत्रासमर्थ सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धाना तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूना च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवर्जनार्थं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्त करोति । तेन भोगाकाङ्क्षादिनिदानरहितपरिणामेन कुटुम्बिना पलालमिव अनीहित - वृत्त्या विशिष्टपुण्यमास्रवति, तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलौकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरिवारादिसम्पद जीर्ण-तृणमिव गणयन् पञ्चमहाविहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यतीति चेत् तदिद समवसरण ते एते वीतरागसर्वज्ञा ते एते भेदाभेदरलत्रयाराधका गणधर देवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते त इदानी प्रत्यक्षेण दृष्टा इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनोऽविरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन काल नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावित विशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोह न करोति । ततो जिनदीक्षा गृहीत्वा "मोक्ष गच्छति । मिथ्यादृष्टिस्तु ।' - स० टी० पृ० १५९-१६० । 4 - २०३ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy