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________________ है और लिखा है कि वे सर्वोत्कृष्ट कवि, श्रेष्ठतम वाग्मी और अद्वितीय गमक थे तथा स्याद्वादविद्याके पारगामी और प्रतिवादियोके अभिमानचूरक एवं प्रभावशाली विद्वान थे और इसलिये वे सबके सम्मान योग्य हैं। इससे जाना जा सकता है कि आचार्य वादीभसिंह एक महान् दार्शनिक, वादी, कवि और दृष्टिसम्पन्न विद्वान् थे-उनकी प्रतिभा एव विद्वत्ता चहुमुखी थी और उन्हें विद्वानोमें अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इनकी तीन कृतियाँ अवतक उपलब्ध हुई हैं । वे ये है१ स्याद्वादसिद्धि-प्रस्तुत ग्रन्थ है। मणि-यह उच्चकोटिका एक नीति काव्यग्रन्थ है। भारतीय काव्यसाहित्यमें इस जैसा नीतिकाव्यग्रन्थ और कोई दृष्टिगोचर नही आया। इसकी सूक्तियाँ और उपदेश हृदयस्पर्शी हैं । यह पद्यात्मक रचना है । इसमें क्षत्रियमुकुट जीवन्धरके, जो भगवान् महावीरके समकालीन और सत्यन्धर नरेशके राजपुत्र थे, चरितका चित्रण किया गया है। उन्होने भगवान्से दीक्षा लेकर निर्वाण लाभ किया था और इससे पूर्व अपने शौर्य एव पराक्रमसे शत्रुओपर विजय प्राप्त करके नीतिपूर्वक राज्यका शासन किया था। ३ गद्यचिन्तामणि-यह ग्रन्थकारकी गद्यात्मक काव्यरचना है। इसमें भी जीवन्धरका चरित निबद्ध है । रचना वही ही सरस, सरल और अपूर्व है । पदलालित्य, वाक्यविन्यास, अनुप्रास और शब्दावलीकी छटा ये सब इसमें मौजूद है। जैन काव्यसाहित्यकी विशेषता यह है कि उसमें सरागताका वर्णन होते हुए भी वह गौण-अप्रधान रहता है और विरागता एव आध्यात्मिकता लक्ष्य तथा मुख्य वर्णनीय होती है । यही बात इन दोनो काव्यग्रन्थोमें है । काव्यग्रन्थके प्रेमियोको ये दोनो काव्यग्रन्य अवश्य ही पढने योग्य हैं । प्रमाणनौका और नवपदार्थनिश्चय ये दो ग्रन्थ भी वादीमसिंहके माने जाते हैं। प्रमाणनौका हमें उपलब्ध नहीं हो सकी और इसलिये उसके बारेमे नहीं कहा जा सकता है कि वह प्रस्तुत वादीभसिंहकी ही कृति है अथवा उनके उत्तरवर्ती किसी दूसरे वादीभसिंहकी रचना है। नवपदार्थनिश्चय हमारे सामने है और जिसका परिचय अनेकान्त वर्ष १० किरण ४-५ में दिया गया है । इस परिचयसे हम इसी निष्कर्षपर पहुंचे है कि यह रचना स्याद्वादसि द्धि जैसे प्रौढ ग्रन्थोके रचयिताकी कृति ज्ञात नही होती । ग्रन्थकी भाषा, विषय और वर्णनशैली प्राय उतने प्रौढ नही है जितने उनमे हैं और न ग्रन्थका जैसा नाम है वैसा इसमें महत्त्वका विवेचन है-साधारण तौरसे नवपदार्थोके मात्र लक्षणादि दिये गये हैं। अन्त परीक्षणपरसे यह प्रसिद्ध और प्राचीन तर्क-काव्यग्रन्थकार वादीभसिंहसूरिसे भिन्न और उत्तरवर्ती किसी दूसरे वादीभसिंहकी रचना जान पडती है। ग्रन्थके अन्तमें जो समाप्तिपुष्पिकावाक्य पाया जाता है उसमे इसे 'भट्टारक वादीभसिंहसूरि' की कृति प्रकट भी किया गया है। यह रचना ७२ अनुष्ट्रप और १ मालिनी कुल ७३ पद्योमें समाप्त है। रचना साधारण और औपदेशिक है और प्राय अशुद्ध है। विद्वानोको इसके साहित्यादिपर विशेष विचार करके उसके समयादिका निर्णय करना चाहिए। इस तरह ग्रन्थ और ग्रन्थकारके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया है। १ 'इति श्रीभट्टारकवादीमिहसूरिविरचितो नवपदार्थनिश्चयः' । -१९५
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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