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________________ इन बातोसे लगता है कि शायद विद्यानन्दने वादीभसिंहका अनुसरण किया है । यदि यह कल्पना ठीक हो तो विद्यानन्दका समय वादोभसिंहकी उत्तरावधि समझना चाहिये। यदि वे दोनो विद्वान् समकालीन हो तो भी एक दूसरेका प्रभाव एक दूसरेपर पड़ सकता है और एक दूसरेके कथन एव उल्लेखका आदर एक दूसरा कर सकता है । विद्यानन्दका समय हमने अन्यत्र' ई० ७७५ से ८४० अनुमानित किया है। ५. गद्य चिन्तामणि (पीठिका श्लोक ६) में वादीभसिंहने अपना गुरु पुष्पपेण आचार्यको बतलाया है और ये पुष्पषेण वे ही पुष्पपेण मालूम होते हैं जो अकलकदेवके सघर्मा और 'शत्रुभयङ्कर' कृष्ण प्रथम (ई० ७५६-७७२) के समकालीन कहे जाते हैं । और इमलिये वादीभसिंह भी कृष्ण प्रथमके समकालीन हैं । अत इन सब प्रमाणोसे वादीभसिंहसूरिका अस्तित्व-समय ईसाकी ८वी और ९वी शताब्दीका मध्यकाल-ई० ७७० से ८६० सिद्ध होता है । बाधकोका निराकरण इस समयके स्वीकार करने में दो बाधक प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं और वे ये है १ क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर स्वामीका चरित्र निबद्ध है जो गणभद्राचार्यके उत्तरपुराण' (शक स० ७७०, ई० ८४८) गत जीवन्धरचरितसे लिया गया है । इसका सकेत भी गद्यचिन्तामणिके निम्न पद्यमें मिलता है नि सारभूतमपि बन्धनतन्तुजात, मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् । जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगाद्वाक्य ममाऽप्युभयलोकहितप्रदायि ॥९॥ अतएव वादीभसिंह गुणभद्राचार्यसे पीछेके हैं। २ सुप्रसिद्ध धारानरेश भोजकी झूठी मृत्य्के शोकपर उनके समकालीन सभाकवि कालिदास, जिन्हें परिमल अथवा दूसरे कालिदास कहा जाता है, द्वारा कहा गया निम्न श्लोक प्रसिद्ध है अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ।। और इसी श्लोकके पूर्वार्धको छाया सत्यन्धर महाराजके शोक प्रसङ्गमें कही गई गद्य चिन्तामणिकी निम्न गद्य में पाई जाती है 'अद्य निराधारा धरा निरालम्बा सरस्वती।' अत वादीसिंह राजा भोज (वि० स० १०७६ से वि० ११-१२) के बादके विद्वान् हैं । ये दो बाधक हैं जिनमें पहलेके उद्भावक श्रद्धेय ५० नाथूरामजी प्रेमी है और दूसरेके स्थापक श्रीकुप्पुस्वामी शास्त्री तथा समर्थक प्रेमीजी है । इनका समाधान इस प्रकार है १ देखो, आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना पू० ५३ । २ देखो, डा० सालतोर कृत मिडियावल जैनिज्म पु०३६ । ३ प्रेमीजीने जो इसे 'शक स० ७०५ (वि० स० ८४०) की रचना' वतलाई है (देखो, जैनसा० और इति० पृ० ४८१) वह प्रेसादिकी गलती जान पड़ती है, क्योंकि उन्हीने उसे अन्यत्र शक स०७७०, ई० ८४८के लगभगकी रचना सिद्ध की है, देखो वही पृ० ५१४ । - १९२ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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