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है। कुलोत्तुङ्गका राज्यकाल वि० स० ११३७ से ११७५ (ई० १०८० से ई० १११८) तक है । अत वादीभसिंह इससे पूर्ववर्ती हैं-बादके नही।
२ श्रावकके आठ मूलगुणोंके बारेमें जिनसेनाचार्यके पूर्व एक ही परम्परा थी और वह थी स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार प्रतिपादित । जिसमें तीन मकार ( मद्य, मास और मघ) तथा हिंसादि पांच पापोका त्याग विहित है। जिनसेनाचार्यने उक्त परम्परामें कुछ परिवर्तन किया और मधुके स्थानमें जुआको रखकर मद्य, मास, जुआ तथा पांच पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगण बतलाया। उसके बाद सोमदेवने तीन मकार और पाच उदुम्बर फलोके त्यागको अष्ट मूलगुण कहा, जिसका अनुसरण प० आशाघरजी आदि विद्वानोंने किया है। परन्तु वादीभसिंहने क्षत्रचूडामणिमें स्वामी समन्तभद्र प्रतिपादित पहली परम्पराको ही स्थान दिया है और जिनसेन आदिकी परम्पराओंको स्थान नही दिया। यदि वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवके उत्तरकालीन होते तो वे बहुत सम्भव था कि उनकी परम्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा कि प० आशाधरजी आदि उत्तरवर्ती विद्वानोंने किया है । इसके अलावा, जिनसेन (ई० ८३८) ने आदिपुराणमें इनका स्मरण किया है, जैसाकि पूर्व में कहा जा चका है । अत वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवसे, जिनका समय क्रमश ईसाकी नवमी और दशमी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नही हैं-पूर्ववर्ती हैं।
३ न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी मीमासाश्लोकवार्तिक गत 'वेदस्याध्ययन सर्व' इस, वेदकी अपौरुषेयताको सिद्ध करने के लिये उपस्थित की गई अनुमानकारिकाका न्यायमञ्जरीमें सम्भवत सर्व प्रथम 'भारताध्ययन सर्व' इस रूपसे खण्डन किया है, जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र, अभयदेव' देवसरि', प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य प्रभृति ताकिकोंने किया है। न्यायमन्जरीकारका वह खण्डन इस प्रकार है
'भारतेऽप्येवमभिधातु शक्यत्वात् भारताध्ययन सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वक । भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति
--न्यायम पृ० २१४ । परन्तु वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें कुमारिलकी उक्त कारिकाके खण्डनके लिये अन्य विद्वानोंकी तरह न्यायमञ्जरीकारका अनुगमन नही किया। अपितु स्वरचित एक भिन्न कारिकाद्वारा उसका निरसन किया है जो निम्न प्रकार है
पिटकाध्ययन सवं तदध्ययनपूर्वकम् ।
तदध्ययनवाच्यत्वादधनेव भवेदिति ।।-स्या० १०-३० । इसके अतिरिक्त वादीभसिंहने कोई पांच जगह और भी इसी स्याद्वादसिद्धिमें पिटकका ही उल्लेख किया है, जो प्राचीन परम्पराका द्योतक है। अष्टशती और अष्टसहस्री (पृ० २३७) में अकलदेव तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) का ही उल्लेख किया है। १ अहिंसा सत्यमस्तेय स्वस्त्री-मितवसु-ग्रहो।
मद्यमासमधुत्यागैस्तेषा मूलगुणाष्टकम् ।।–क्षत्र०७-२३ । २ देखो, न्यायकुमुद पृ० ७३१, प्रमेयक०, पृ० ३९६। ३ देखा, मन्मतिटी०, पृ० ४१ । ४ देखो, स्या० र०, पृ० ६३४ । ५ देखो, प्रमेयरत्न०, पृ० १३७ ।
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