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लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख तथा विद्यानन्दके 'केचित' शब्दके साथ उद्धत 'जयति जगति' आदि पद्य परसे जानी जाती है तथा इन्ही वादीभसिंहका 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजसूरिने बडे सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य जिते' वाक्यमें वादिराजने 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हीकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि जैसी स्याद्वादविद्यासे परिपूर्ण कृतियोकी ओर इशारा किया है तो कोई अनुचित मालूम नही होता। इसके औचित्यको सिद्ध करनेवाले नीचे कुछ प्रमाण भी उपस्थित किये जाते है।
(१) क्षत्रचूडामणि और गद्य चिन्तामणिके मङ्गलाचरणोमें कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् भक्तोंके समीहित (जिनेश्वर-पदप्राप्ति) को पुष्ट करें-देवें । यथा
(क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्ताना व समीहितम् ।
यद्भक्ति शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥–क्षत्रचू० १-१ । (ख) श्रिय पति पुष्यतु व समीहित,
त्रिलोकरक्षानिरतो जिनेश्वर । यदीयपादाम्बुजभक्तिशीकर ,
सुरासुराधीशपदाय जायते ।। -गद्य चि० १०१ । लगभग यही स्याद्वादसिद्धिके मङ्गलाचरणमें कहा गया है(ग) नम श्रीवर्द्धमानाय स्वामिने विश्ववेदिने।
नित्यानन्द-स्वभावाय भक्त-सारूप्य-दायिने ।।१-१॥ (२) जिस प्रकार क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके प्रत्येक लम्बके अन्तमें समाप्तिपुष्पिकावाक्य दिए हैं वैसे ही स्याद्वादसिद्धिके प्रकरणान्तमें वे पाये जाते हैं । यथा
(क) 'इति श्रीमद्वादीसिंहसूरिविरचिते गद्य चिन्तामणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्ब'-क्षत्रचूडा० ।
(ख) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तमणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्ब ।'--द्यचिन्तामणि ।
(ग) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिताया स्याद्वादसिद्धी चार्वाक प्रति जीवसिद्धि ।'--स्याद्वादसिद्धि ।
(३) जिस तरह ' क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें यत्र क्वचित नीति, तर्क और सिद्धान्तकी पुट उपलब्ध होती है उसी तरह वह प्राय स्याद्वादसिद्धिमें भी उपलब्ध होती है । यथा--
(क) 'अतकितमिद वृत्त तर्करूढ हि निश्चलम् ॥१-४२।। इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्गत्यधीन हि मानसम् ॥१-६५।।
-क्षत्रचूडामणि । (ख) 'ततो हि सुधिय ससारमुपेक्षन्ते ।'
-गद्यचिन्तामणि पृ० ७८ । _ 'एव परगतिविरोधिन्या चार्वाकमतसब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगहीता क्षितिपतिसूता नैयायिकनिर्दिष्टनिर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव कापिलकल्पितपूरुषा इव प्रकृतिविकारपर वचन प्रतिपादयन्ति ।'
-द्यचि० पृ०६६