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________________ का उपलालनफर्ता कहा है और विद्यानन्दने 'केचित्' शब्दोंके गाथ उन्हीकी टीकाके उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अण्टराहस्रीके अन्तमें अपने तथा अकलद्धदेवके समाप्तिमङ्गलके पहले उद्धृत किया है। ५. क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रन्थोके कर्ता वादीमसिंह मूरि अति विख्यात और सुप्रसिद्ध है। ६ प० के० भुजबलीजी शास्त्री'ई०१०९० और ई०११४७ के नं. ३ तथा ३७ के दो शिलालेखोंके आधारसे एक वादीभसिंह (अपर नाम अजितसेन) का उल्लेख करते हैं। ७ श्रुतसागरसरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक (भापवास २-१२६) को अपनी टीकामें एक वादीभसिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोमदेवका शिप्य कहा है 'वादोभसिंहोऽपि मदीयशिष्य. श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्य. । इत्युक्तत्वाच्च ।' वादिसिंह और वादोभसिंहके ये सात उल्लेख है जो अब तककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोको जैन साहित्यमें मिले हैं। अब देखना यह है कि वे सातो उल्लेख भिन्न-भिन्न है अथवा एक? अन्तिम उल्लेखको प्रेमीजी, १० फैलागचन्द्रजी' आदि विद्वान् मभ्रान्त और अविश्वसनीय नही मानते, जो ठीक भी है, क्योकि इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिंहने ही अपनेको सोमदेवका कही शिप्य प्रकट किया और न वादिराजने ही अपनेको उनका शिष्य बतलाया है। प्रत्युत वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने मतिसागरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे, सोमदेवने उयत वचन किस अथ और किम प्रसङ्गमें कहा, यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्योपरसे ज्ञात नही होता । अत जवतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नही होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमे नही रखा जा सकता। शेष उल्लेखोमें मेरा विचार है कि तीसरा और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम मल्लिपेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखोंमें अजितसेन मुनि अथवा अजितसेन पण्डितदेव भी पाया जाता है तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ अपरनाम श्रीकान्त मोर वादिकोलाहल नागके दो शिष्य भी बतलाये गये है। इन मल्लिपणप्रशस्ति और शिलालेखोका लेखनकाल ई० ११२८, ई०१०९० और ई० ११४७ है और इसलिये इन वादीसिंहका समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सकता है। वाकीके चार उल्लेख-पहला, दूसरा, चौथा और पाचा प्रथम वादीभसिंहके होना चाहिए, जिन्हें 'वादिमिह' नामसे भी साहित्यमें उल्लेखित किया गया है । वादीभसिंह और वादिसिंहके अर्थमें कोई भेद नही है-दोनोका एक ही अर्थ है। वादिरूपी गजोके लिये सिंह और वादियोके लिये सिंह एक ही बात है। अव यदि यह सम्भावना की जाय कि क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रथोके कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार हैं और इन्हीने आप्तमीमासापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका अथवा वृत्ति १ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २ पृ० ७८ । २ देखो, न० शीतलप्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित 'मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन स्मारक' नामक पुस्तक । ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८० । ४. देखो, न्यायकुमुद, प्र० भा०, प्रस्ता० पृ० ११२ । - १८६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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