SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २ न्याय-ग्रन्थोंका पंढना व्यवहारकुशलताके लिये भी उपयोगी है। उससे हमें यह मालूम हो जाता है कि दुनियामें भिन्न-भिन्न विचारोके लोग हमेशासे रहे हैं और रहेंगे। यदि हमारे विचार ठीक और सत्य है और दूसरेके विचार ठीक एव सत्य नही है तो दर्शनशास्त्र हमें दिशा दिखाता है कि हम सत्यके साथ सहिष्णु भी बनें और अपनेसे विरोधी विचार वालोको अपने तर्कों द्वारा ही सत्यकी ओर लानेका प्रयत्न करें, जोर-जबरदस्तीसे नही। जैन दर्शन सत्यके साथ सहिष्णु है । इसीलिये वह और उसका सम्प्रदाय भारतमें टिका चला आ रहा है, अन्यथा बौद्ध आदि दर्शनोकी तरह उसका टिकना अशक्य था। अन्धश्रद्धाको हटाने, वस्तुस्थितिको समझने और विभिन्न विचारोका समन्वय करनेके लिये न्याय एव दार्शनिक ग्रन्थोंका पढना, मनन करना, चिन्तन करना जरूरी है । न्याय-अन्थोमे जो आलोचना पाई जाती है उसका उद्देश्य केवल इतना ही है कि सत्यका प्रकाशन और सत्यता ग्रहण हो । न्यायालयमें भी झूठे पक्षकी आलोचनाकी ही जाती है। ३ न्यायशास्त्रका प्रभावक्षेत्र व्यापक है । व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त आदि सबपर इसका प्रभाव है । कोई भी विषय ऐसा नही है जो न्यायके प्रभावसे अछूता हो । व्याकरण और साहित्यके उच्च ग्रन्थोमें न्यायसूर्यका तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हमा मिलेगा। मैं उन मित्रोको जानता है जो व्याकरण और साहित्यके अध्ययनके समय न्यायके अध्ययनकी अपनेमें महसूस करते हैं और उसकी आवश्यकतापर जोर देते हैं। इससे स्पष्ट है कि न्यायका अध्ययन कितना उपयोगी और लाभदायक है। ४ किसी भी प्रकारकी विद्वत्ता प्राप्त करने और किसी भी प्रकारके साहित्य-निर्माण करनेके लिये चलता दिमाग चाहिये । यदि चलता दिमाग नही है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न किसी तरह के साहित्यका निर्माण ही कर सकता है। और यह प्रकट है कि चलता दिमाग मुख्यत न्यायशास्त्रसे होता है । उसे दिमागको तीक्ष्ण एव द्रुत गतिसे चलता करनेके लिए उसका अवलम्बन जरूरी है। सोनेमें चमक कसौटीपर ही की जाती है। अत साहित्यसेवी और विद्वान बननेके लिए न्यायका अभ्यास उतना ही जरूरी है जितना आज राजनीति और इतिहासका अध्ययन । ५ न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओंमें जा सकता है और सब क्षेत्रोमें अपनी विशिष्ट उन्नति कर सकता है-वह असफल नही हो सकता । सिर्फ शर्त यह कि वह न्यायग्रन्थोका केवल भारवाही न हो। उसके रससे पूर्णत अनुप्राणित हो। ६ निसर्गज तर्क कम लोगोमें होता है। अधिकाश लोगोमें तो अधिगमज तर्क ही होता है, जो साक्षात् अथवा परम्परया न्यायशास्त्र-तर्कशास्त्रके अभ्याससे प्राप्त होता है। अतएव जो निसर्गत तर्कशील नहीं है उन्हें कभी भी हताश नही होना चाहिए और न्यायशास्त्र अध्ययन द्वारा अधिगमज तर्क प्राप्त करना चाहिए । इससे वे न केवल अपना ही लाभ उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य और समाजके लिए भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर सकते हैं। ७ समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द आदि जो बडे-बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हुए है वे सब न्यायशास्त्रके अभ्याससे ही बने है । उन्होने न्यायशास्त्र-रत्नकारका अच्छी तरह अवगाहन करके ही उत्तमउत्तम ग्रन्थरत्न हमें प्रदान किये हैं, जिनका प्रकाश आज प्रकट है और जो हमे धरोहरके रूपमें सौभाग्यसे प्राप्त है । हमारा कर्तव्य है कि हम उन रत्नोको आभाको अधिकाधिक रूपमें दुनियाके कोने-कोनेमें फैलायें, जिससे जैन शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें ख्यात हो । वस्तुत न्याय-विद्या एक बहुत उपयोगी और लाभदायक विद्या है, जिसका अध्ययन लौकिक और पारमार्थिक दोनो दृष्टियोसे आवश्यक है। -१६४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy