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________________ प्रकार है-१. न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) २. सिद्धि-विनिश्चय, ३. प्रमाणसंग्रह और ४ लघीयस्वय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) । ये चारो ग्रन्थ कारिकात्मक है । अकलङ्कने जैन न्यायको जो रूपरेखा और दिशा निर्धारित की, उसीका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकोने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्य आदि मध्ययुगीन आचार्योने उनके कार्यको आगे बढाया और उसे यशस्वी बनाया है। उनके सूत्रात्मकएव दुरूह कथनको इन आचार्योंने अपनी रचनाओ द्वारा सुविस्तृत मौर सुपुष्ट किया है। हरिभद्र की अने कान्तजयपताका, शास्त्रवासिमच्चय, वीरसेनको तर्कवहल धवला-जयघवला टीकाएँ, कुमारनन्दिका वादन्याय, विद्यानन्दके विद्यानन्दमहोदय, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहन्त्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रमाणमग्रहभाण्य, वादिराजके न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाण-निर्णय और माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख इस कालको अनूठी न्याय-रचनाएं है। जैन न्यायके विकासका उत्तरकाल प्रभाचन्द्रका काल माना जा सकता है, क्योकि प्रभाचन्द्रने इस कालमें अपने पूर्वज माचार्योंका अनुगमन करते हुए जो विशालकाय व्याख्याग्रन्थ लिखे हैं वैसे व्याल्याग्रन्थ उनके बाद नही लिखे गये । अकलंकके लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रयालकार, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है और माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी प्रमेयवहुल एव तर्कपूर्ण टीकाएँ रची है, जो प्रभाचन्द्रकी अमोघ तर्कणा और उज्ज्वल यशको प्रसत करती है। अभयदेवकी सन्मतितकटीका और वादि-देवसूरिका स्याद्वादरत्नाकर (प्रमाणनय-तत्त्वालोकालकारटोका) ये दी टीकाएँ भी महत्त्वपूर्ण है, जो प्रभाचन्द्रकी तर्क-पद्धतिसे प्रभावित है। इस कालमें मौलिक ग्रन्थोके निर्माणकी क्षमता प्रायः कम हो गयी और व्याख्यानन्थोंका निर्माण हुमा । लघु अनन्तवोर्यने परीक्षामुखकी लघुवृत्ति-प्रमेयरत्नमाला, अभयदेवने सन्मतितटीका, देवसूरिने प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार और उसकी स्वोपज्ञ टीका स्याद्वादरत्नाकर, अभयचन्द्रने लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेणने स्याद्वादमजरी, आशाधरने प्रमेयलाकर, भावसेनने विश्वतत्त्वप्रकाश, मजितसेनने न्यायमणिदीपिका, धर्मभूषणने न्यायदीपिका, चारुकीतिने अर्थप्रकाशिका और प्रमेयरत्नालकार, विमलदासने सप्तभडि-तरगिणी, नरेन्द्रसेनने प्रमाणप्रमेयकलिका और यशोविजयने अष्टसहस्रीविवरण, ज्ञानविन्दु और जैन तर्कभाषाकी रचना की, जो विशेष उल्लेखयोग्य न्यायग्रन्थ है। इसके बाद जैन न्यायकी धारा प्राय वन्द हो गयी। हां. बीसवी शताब्दीमें श्री गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य, प० माणिचन्द्रनी न्यायाचार्य, ५० सुखलालजी प्रज्ञाचक्ष, प० दलसुखभाई मालवणिया और प० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यके भी नाम उल्लेख योग्य है, जिन्होने न्यायशास्त्रका गहरा अध्ययन किया और न्यायग्रन्थोका सम्पादनकर उनके नाय पोषपूर्ण प्रस्तावनाएँ निवद्ध की हैं। इस न्याय-विद्याके अध्ययनकी विद्वत्ता और पाण्डित्य प्राप्त करनेके लिए बहुत आवश्यकता है। उससे चुदि पैनी एव तर्कप्रवण होती है। न्यायशास्त्रका अध्येता परीक्षा-चक्षु होता है। न्यायविद्याके अध्ययनसे लाभ १ हरेक व्यक्तिको वृद्धि स्वभावत कुछ न कुछ तर्कशील रहती है। न्यायशास्त्र अध्ययनसे उस त में विकास होता है, वुद्धि परिमार्जित होती है, प्रश्न करने और उसे जमा कर उपम्पित करनेका बुद्धिम मादा आता है । विना तर्फको बुद्धि पाभी-कभी ऊटपटाग-जीको रपान करने वाले प्रश्न कर बनी है, जिससे व्यपित हास्यका पात्र बनता है ।
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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