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________________ अकलङ्क कहते हैं कि यथार्थमें हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिञ्चित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्वके अभावमें होता है। वास्तव में अनुमानका उत्त्यापक अविनाभावी हेतु ही है, अत अविनाभाव (अन्यथानपपन्नत्व) के अभावमे हेत्वाभासको सृष्टि होती है। यत हेतु एक अन्यथानुपपन्नरूप ही है, अत उसके अभावमें मूलत एक ही हेत्वाभास मान्य है और वह है अन्यथा उपपन्नत्व अर्थात् अकिञ्चित्कर । असिद्धादि उसोका विस्तार हैं । इस प्रकार अकलङ्कके द्वारा 'अकिञ्चित्कर' नामके नये हेत्वाभासकी परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है। बालप्रयोगाभास. माणिक्यनन्दिने आभासोका विचार करते हुए अनुमानामाससन्दर्भ में एक 'वालप्रयोगाभास' नामके नये अनुमानाभासकी चर्चा प्रस्तुत की है। इस प्रयोगाभासका तात्पर्य यह है कि जिस मन्दप्रज्ञको समझानेके लिए तीन अवयवोकी आवश्यकता है उसके लिए दो ही अवयवोका प्रयोग करना, जिसे चारको आवश्यकता है उसे तीन और जिसे पांचकी जरूरत है उसे चारका ही प्रयोग करना अथवा विपरीत क्रमसे अवयवोंका कथन करना बालप्रयोगाभास हैं और इस तरह वे चार (द्वि-अवयवप्रयोगाभास, त्रि-अवयवप्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विपरीतावयवप्रयोगाभास) सम्भव है । माणिक्यनन्दिसे पूर्व इनका कथन दृष्टिगोचर नही होता । अत इनके पुरस्कर्ता माणिक्यनन्दि प्रतीत होते हैं । अनुमानमे अभिनिबोध-मतिज्ञानरूपता और श्रुतरूपता जैन वाड्मयमें अनुमानको अभिनिबोधमतिज्ञान और श्रुत दोनों निरूपित किया है । तत्त्वार्थसूत्रकारने उसे अभिनिबोध कहा है जो मतिज्ञानके पर्यायोमें पठित है। षट्खण्डागमकार भूतबलि-पुष्पदन्तने उसे 'हेतुवाद' नामसे व्यवहृत किया है और श्रुतके पर्यायनामोमें गिनाया है। यद्यपि इन दोनो कथनोंमें कुछ विरोध-सा प्रतीत होगा। पर विद्यानन्दने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि तत्वार्थसूत्रकारने स्वार्थानुमानको अभिनिबोध कहा है, जो वचनात्मक नही है और पटखण्डागमकार तथा उनके व्याख्याकार वीरसेनने परार्थानुमानको श्रुतरूप प्रतिपादित किया है, जो वचनात्मक होता है। विद्यानन्दका यह समन्वयात्मक सूक्ष्म चिन्तन जैन तर्कशास्त्रमें एक नया विचार है जो विशेष उल्लेख्य है। इस उपलब्धिका सम्बन्ध विशेषतया जैन ज्ञानमीमासाके साथ है। इस तरह जैन चिन्तकोकी अनुमानविषयमें अनेक उपलब्धियां हैं। उनका अनुमान-सम्बन्धी चिन्तन भारतीय तर्कशास्त्रके लिए कई नये तत्त्व देता है। +१६०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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