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अनुमान (अभिनिवोघ) में ही सम्मिलित थे । वादिराजने प्रमाण निर्णयमें सम्भवत ऐसी ही परम्पराका निर्देश किया है जो उन्हें अनुमानके अन्तर्गत स्वीकार करती थी। अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव जैसे परोक्ष ज्ञानोका भी इसीमें समावेश किया गया है । (छ) अनुमानका तार्किक विकास
अनुमानका तार्किक विकास स्वामी समन्तभद्रसे आरम्भ होता है । आप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र में उन्होने अनमानके अनेको प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जिनमें उसके उपादानो-साध्य, साधन, पक्ष, उदाहरण, अविनाभाव आदिका निर्देश है। सिद्धसेनका न्यायावतार न्याय (अनुमान) का अवतार ही है। इसमें अनुमानका स्वरूप, उसके स्वार्थ-परार्थ द्विविध भेद, उनके लक्षण, पक्षका स्वरूप, पक्षप्रयोगपर बल, हेतुके तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति द्विविध प्रयोगोका निर्देश, साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्तद्वय, अन्तर्व्याप्तिके द्वारा ही साध्यमिद्धि होनेपर भार, हेतु का अन्यथानुपन्नत्वलक्षण, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास जैसे अनुमानोपकरणोका प्रतिपादन किया गया है । अकलकके न्याय-विवेचनने तो उन्हें 'अकलक न्याय' का सस्थापक एव प्रवर्तक ही बना दिया है । उनके विशाल न्याय-प्रकरणोमे न्यायविनिश्चय, प्रमाणसग्रह, लघीयस्त्रय और सिद्धिविनिश्चय जैन प्रमाणशास्त्रके मूर्धन्य ग्रन्थो में परिगणित है। हरिभद्रके शास्त्रवासिमुच्चय, अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थोमें अनुमान-चर्चा निहित है। विद्यानन्दने अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा जैसे दर्शन एव न्याय-प्रबन्धोको रचकर जैन न्यायवाड़मयको समृद्ध किया है। माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख, प्रभाचन्द्रका प्रमेयकमलमार्तण्डन्यायकुमुदचन्द्र -युगल, अभयदेवकी सन्मतितर्कटीका, देवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार, अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चयटीका, वादिराजका न्यायविनिश्चयविवरण, लघु अनन्तवीर्यकी प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्रकी प्रमाण-मीमासा, धर्मभूषणकी न्यायदीपिका और यशोविजयकी जैन तर्कभाषा जैन अनुमानके विवेचक प्रमाणग्रन्थ है।
अनुमानका स्वरूप व्याकरणके अनुसार 'अनुमान' शब्दकी निष्पत्ति अनु +मा+ ल्युट्से होती है। अनुका अर्थ है पश्चात् और मानका अर्थ है ज्ञान । अत अनुमानका शाब्दिक अर्थ है पश्चादवर्ती ज्ञान । अर्थात एक ज्ञानके बाद होनेवाला उत्तरवर्ती ज्ञान अनुमान है। यहां 'एक ज्ञान' से क्या तात्पर्य है ? मनीषियोका अभिमत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही एक ज्ञान है जिसके अनन्तर अनुमानकी उत्पत्ति या प्रवृत्ति पायी जाती है। गौतमने इसी कारण अनुमगनको 'तत्पूर्वकम्-प्रत्यक्षपूर्वकम्' कहा है । वात्स्यायनका भी अभिमत है कि प्रत्यक्षके बिना कोई अनुमान सम्भव नही। अत अनुमानके स्वरूप-लाभमें प्रत्यक्षका सहकार पूर्वकारणके रूपमें अपेक्षित होता है। अतएव तकशास्त्री ज्ञात-प्रत्यक्षप्रतिपन्न अर्थसे अज्ञात-परोक्ष वस्तुकी जानकारी अनुमान द्वारा करते हैं। १ अनुमानमपि द्विविध गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमान त्रिविध स्मरण प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति ।
-वादिराज, प्र०नि०, पृष्ठ ३३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई। २ अकलकदेव, त० वा० ११२०, पृष्ठ ७८, भारतीय ज्ञानपीठ, काशो। ३ अथ तत्पूर्वक त्रिविधमनुमानम् ।-न्यायसू० १११।५।। ४ अथवा पूर्ववदिति- यत्र यथापूर्व प्रत्यक्षभूतयोरन्यतरदर्शनेनान्यतरस्याप्रत्यक्षस्यानुमानम् । यथा धूमे.
नाग्निरिति ।-न्यायभा० ११११५, पृष्ठ २२ । ५ यथा धुमेन प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य वह्नग्रहणमनुमानम् ।-वही, २१११४७, पृष्ठ १२० ।
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