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दश इस प्रकार पांच तरहसे अवयवोंकी चर्चा की है। प्रतीत होता है कि अवयवोकी यह विभिन्न सस्या विभिन्न प्रतिपाद्योकी अपेक्षा बतलायी है।
ध्यातव्य है कि वात्स्यायन द्वारा समालोचित तथा युक्तिदीपिकाकार द्वारा विवचित जिज्ञामादि दशावयव भद्रबाहके दशावयवोंमे भिन्न हैं।
उल्लेखनीय है कि भद्रबाहुने मात्र उदाहरणसे भी साध्य-निद्धि होनेयी बात कही है जो किमी प्राचीन परम्पराको प्रदर्शक है ।
इस प्रकार जैनागमोमें हमें ठगनुमान-मीरागाफे पुष्कल बीज उपरब्ध होते है । यह सही है कि उनका प्रतिपादन फेवल नि श्रेयसाधिगम गौर उसमे उपयोगी तत्त्वोंके शान एव व्यवस्थाके लिए ही किया गया है। यही कारण है कि उनमें न्यायदर्शनकी तरह वाद, जल्प और वितण्डापूर्वया प्रवृत्त कथाओ, जातियों, निग्रहस्थानो, छलो तथा हेत्वाभामोंका कोई उल्लेस नही है।
(च) अनुमानका मूल-रूप
मागमोत्तर कालमें जव शानमीमामा और प्रमाणमीमासाका विकाम आरम्भ हआ तो उनके विकासके साथ अनुमानका भी विकाम होता गया। आगम-णित मति, श्रुत मादि पांच शानोको प्रमाण कहने और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो भेदोंमें विमन करने वाले मर्वप्रयम माचार्य गपिच्छ है । उन्होने शास्त्र और लोकमें व्यवहृत स्मति, मशा, चिन्ता और अभिनिचोध इन चार शानोंको भी एक सूत्र द्वारा परोक्ष-प्रमाणके अन्तर्गत समाविष्ट करके प्रमाणशास्त्र विकासका सूत्रपात किया तथा उन्हें परोक्ष प्रमाणके आद्य प्रकार मतिज्ञानका पर्याय प्रतिपादन किया। इन पर्यायोमें अभिनिवोधका जिम क्रमसे और जिस स्थानपर निर्देश हमा है उससे ज्ञात होता है कि सूपकारने उमे अनुमान के अर्थ में प्रयुक्त किया है। स्पष्ट है कि पूर्व-पूर्वको प्रमाण और उत्तर-उत्तरको प्रमाण-फल बतलाना उन्हें अभीष्ट है। मति (अनुभव-धारणा) पूर्वक स्मृति, स्मृतिपूर्वक सज्ञा, सज्ञा-पूर्वक चिन्ता और चिन्तापूर्वक अभिनिबोध ज्ञान होता है, ऐमा सूअसे ध्वनित है । यह चिन्तापूर्वक होनेवाला अभिनियोघ अनुमानके अतिरिक्त अन्य नही है । अतएव जैन परम्परामें अनुमान
नवोप' और 'पूर्वोक्त 'हेतुवाद' में उसी प्रकार समाहित है जिस प्रकार वह वैदिक परम्परामें 'वाकोवाक्यम्' और 'आन्वीक्षिकी' में निविष्ट है।
उपर्युक्त मीमासासे दो तथ्य प्रकट होते है। एक तो यह कि जैन परम्परामें ईस्वी पूर्व शताब्दियोसे ही अनुमानके प्रयोग, स्वरूप और भेद-प्रभेदोकी समीक्षा की जाने लगी थी तथा उसका व्यवहार हेतुजन्य ज्ञानके अर्थ में होने लगा था। दूसरा यह कि अनुमानका क्षेत्र बहत विस्तृत और व्यापक था । स्मृति, सज्ञा और चिन्ता, जिन्हें परवर्ती जैन ताकिकोने परोक्ष प्रमाणके अन्तर्गत स्वतन्य प्रमाणोका रूप प्रदान किया है,
१ प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत ।-प्र० परी०पू० ४९ में उद्धत कुमारनन्दिका वाक्य । २ श्रीदलसुखभाई मालवणिया, आगमयुगका जैन दर्शन, प्रमाणखण्ड, पृ० १५७ । ३ मतिश्रुतावधिमन पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।-तत्त्वा० सू०
२९, १०, ११, १२।। ४ मति स्मृति सज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।-वही, १११३ । ५ गृद्धपिच्छ, त० सू० १११३ ।
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