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________________ (अ) वेदान्त और साख्यदर्शनमे अनुमान-विकास वेदान्तमें प्रमाणशास्त्रकी दृष्टिसे वेदान्तपरिभाषा जैसे ग्रन्थ लिखे गये है । साख्य विद्वान् भी पीछे नही रहे। ईश्वर कृष्णने अनुमानका प्रामाण्य स्वीकार करते हुए उसे विविध प्रतिपादित किया है । माठर, युक्तिदीपिकाकार, विज्ञानभिक्षु और वाचस्पति आदिने अपनी व्याख्याओ द्वारा उसे सम्पुष्ट और विस्तृत किया है। जैनदर्शनमे अनुमान-विकास जैन वाड्मयमें अनुमानका क्या रूप रहा है और उसका विकास किस प्रकार हुआ, इस सम्बन्धमें विचार करेंगे। (क) षट्खण्डागममे हेतुवादका उल्लेख जैन श्रुतका आलोडन करनेपर ज्ञात होता है कि षट्खण्डागममें श्रुतके पर्याय-नामोमें एक 'हेतुवाद'१ नाम भी परिगणित है, जिसका व्याख्यान आचार्य वीरसेनने हेतुद्वारा तत्सम्बद्ध अन्य वस्तुका ज्ञान करना किया है और जिसपरसे उसे स्पष्टतया अनुमानार्थक माना जा सकता है, क्योकि अनुमानका भी हेतुसे साध्यका ज्ञान करना अर्थ है । अतएव हेतुवादका व्याख्यान हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, युक्तिशास्त्र और अनुमानशास्त्र किया जाता है। स्वामी समन्तभद्र ने सम्भवत ऐसे ही शास्त्रको 'युपत्यनुशासन'२ कहा है और जिसे उन्होने दृष्ट (प्रत्यक्ष) और आगमसे अविरुद्ध अर्थका प्ररूपक बतलाया है। (ख) स्थानागसूत्रमे हेतु-निरूपण स्थानागसूत्र में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है और उसका प्रयोग प्रामाणसामान्य तथा अनुमानके प्रमुख अग हेतु (साधन) दोनोके अर्थमे हआ है। प्रमाणसामान्यके अर्थमें उसका प्रयोग इस प्रकार है १ हेतु चार प्रकारका है १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान, ४ आगम । गौतमके न्यायसूत्रमे भी ये चार भेद अभिहित हैं। पर वहाँ इन्हे प्रमाणके भेद कहा है। हेतु के अर्थमें हेतु शब्द निम्न प्रकार व्यवहृत हुआ है२ हेतुके चार भेद है१ विधि विधि-(साध्य और साधन दोनो सद्भावरूप हों) २ विधि-निषेध-(साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप) ३, निषेध-विधि-(साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप ) ४ निषेध निषेध-(साध्य और साधन दोनो निषेधरूप हो ) हेतुवादो णयवादो परवादो मग्गवादो सूदवादो । -भूतबली-पुष्पदन्त, षटखण्डा० ५।५।५१, सोलापुर सस्करण १९६५ । २ दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपण युक्त्यनुशासन ते।। -समन्तभद्र, युक्त्यनुशा० का० ४८, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली । ३ अथवा हेऊ चउन्विहे पन्नते त जहा-पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे । अथवा हेक चउन्विढे पन्न जहा-अत्थि त अत्थि सो हेक, अस्थि त णत्थि सो हेऊ, णस्थित अत्यि सो हेऊ, त्थि त णत्थि सो हेऊ ।-स्थानागसू० पृष्ठ ३०९-३१० । ४ हिनोति परिच्छिन्नत्त्यर्थमिति हेतु । - १३३ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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