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________________ प्रमाण, लिंगसे होनेवाले अर्थ (अनुमेय) दर्शनको अनुमान, हेत्वाभासपूर्वक होनेवाले ज्ञानको अनुमानाभास, दूपण और दूपणाभारा आदि अनुमानोपयोगी तत्त्वो का स्पष्ट निरूपण करके बौद्ध तर्कशास्त्रको अत्यधिक पुष्ट तथा पल्लवित किया गया है। इसी प्रयोजनको पुष्ट और बढ़ावा देनेके लिए दिङ्नागने न्यायद्वार, प्रमाणसमुच्चय सवृत्ति, हेतुचक्रसमर्थन आदि ग्रन्थोकी रचना करके उनमें प्रमाणका विशेषतया अनमानका विचार किया है। धर्मकीतिने प्रमाणरामुच्चयपर अपना प्रमाणवातिक लिसा है, जो उद्योतकरके न्यायवातिककी तरह व्याख्येय ग्रन्थसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और यशस्वी हुआ। इन्होने हेतुयिन्दु, न्यायविन्दु आदि स्वतन्य प्रकरण-ग्रन्योकी भी रचना की है और जिनसे बौद्ध तर्कशास्त्र न केवल समृद्ध हुआ, अपितु अनेक उपलब्धियां भी उसे प्राप्त हुई है। न्यायविन्दु में अनुमानका लक्षण और उसके द्विविध भेद तो न्यायप्रवेश प्रतिपादित ही है। पर अनुमानके अवयव धर्मकोतिने तीन न मानकर हेतु और दृष्टान्त ये दो अयवा फेवल एक हेतु ही माना है। हेतु के तीन भेद (स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि), अविनाभावनियामक तादात्म्य और तदुत्पत्तिसम्बधद्वय, यारह अनुपलब्धियां आदि चिन्तन धर्मको तिकी देन है। इन्होने जहाँ दिड्नागके विचारोका समर्थन किया है वहां उनकी कई मान्यताओकी मालोचना भी की है। दिइनागने विरुद्ध हेत्वाभामके भेदोमें इष्टविघातकृत नामक तृतीय विरुद्ध हेत्वाभाम, गनेकान्तिकभेदोमें विरुद्धाव्यभिचारी और साधनावयवोमे दृष्टान्तको स्वीकार किया है। धर्मकीतिने न्यायविन्दुमे इन तीनोकी समीक्षा की है। इनकी विचार-धाराको उनको शिष्यपरम्परामें होनेवाले देवेन्द्रवुद्धि, शान्तभद्र, विनीतदेव, अर्चट, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर आदिने पुष्ट किया और अपनी व्याख्याओ-टीकाओ आदि द्वारा प्रवृद्ध किया है। इस प्रकार वौद्धतर्कशास्त्रके विकासने भी भारतीय अनुमानको अनेक रूपोमे समृद्ध किया है। (घ) मीमासक-दर्शनमे अनुमानका विकास बौद्धों और नैयायिकोके न्यायशास्त्र विकासका अवश्यम्भावी परिणाम यह हआ कि मीमामक जैसे दर्शनोंमें, जहां प्रमाणकी चर्चा गौण थी, कुमारिलने श्लोकवार्तिक, प्रभाकरने वृहती शालिकनाथने वृहतीपर पचिका और पार्थसारथिने शास्यदीपिकान्तर्गत तर्कपाद जैसे ग्रन्थ लिखकर तर्कशास्त्रको मोमासक दृष्टिमे प्रतिष्ठिन किया । श्लोकवाति कमें तो कुमारिलने एक स्वतन्त्र अनुमान-परिच्छेदकी रचना करके अनुमानका विशिष्ट चिन्तन किया है और व्याप्य हो यो गमक होता है इसका सूक्ष्म विचार करते हुए उन्होने व्याप्य एव व्याप्तिके सम और विषम दो रूप बतलाकर अनुमानकी समृद्धि को है। १ प० दलसुखभाई मालवाणिया, धर्मोत्तर-प्रदीप, प्रस्ताय० पृष्ठ ४१ । २ धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृष्ठ ४४ । ३ अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्ग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि ।-सपादक राहुल साकृत्यायन, वादन्या० पृष्ठ ६१ । ४ धर्मकोति, न्यायबिन्दु, तृतीय परि०, पृष्ठ ९१ । ५ (क) तप च तृतीयोऽपोष्ट विधातद्विरुद्ध । स इह कस्मान्नोक्त । अनयोरेवान्तर्भावात् । (ख) विरुद्धाव्यभिचार्यपि सशयहेतु रुक्त । स इह कस्मान्नोक्त । अनुमानविषयेऽ-सम्भवात् । (ग) त्रिरूपो हेतुरुक्त । तावतवार्थप्रतीतिरिति न पृथग्दष्टान्तो नाम साधनावयव कश्चित् ।-न्यायबि० पृष्ठ ७९-८०, ८६, ९१ । ६ मी० श्लो०, अनुमा० परि०, श्लोक ४-७ तथा ८-१७१ । -१३२
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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