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तथा विस्तृत स्वरूप प्रदर्शित किया है। व्याप्तिग्रहके सावनोमें सामान्यलक्षणाप्रत्यासात्तिपर उन्होने सर्वाधिक बल दिया है। उनका अभिमत है कि यदि सामान्यलक्षणा न हो तो अनुकूल तर्कादिके बिना घूमादिमें आशकित व्यभिचार नही बन सकेगा, क्योंकि प्रसिद्ध धूममें वह्निसम्बन्धका ज्ञान हो जानेसे कालान्तरीय एव देशान्तरीय धूमके सद्भावका साधक प्रमाण न होनेसे उसका ज्ञान नही होता। सामान्यलक्षणा द्वारा तो समस्त धूमोको उपस्थिति हो जाने और धूमान्तरका विशेष दर्शन न होनेसे व्यभिचारकी आशका सम्भव है । तात्पर्य यह कि व्यभिचारशकाके लिए सामान्यलक्षणाका मानना आवश्यक है और व्यभिचारशकाके होने पर ही तर्कादिकी उपयोगिता प्रमाणित होती है। इसी प्रकार गगेशने अनुमानके सम्बन्ध मे मौलिक विवेचन नव्यन्यायके आलोकमें कर नये सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं।
विश्वनाथ, जगदीश तर्कालकार, मथुरानाथ तर्कवागीश, गदाधर आदि नव्यनैयायिकोने भी अनुमान पर बहुत ही सूक्ष्म विचार करके उसे समृद्ध किया है । केशव मिश्रकी तर्कभाषा और अन्नम्भट्टको तर्कसंग्रह प्राचीन और नवीन न्यायकी प्रतिनिधि तर्ककृतियां हैं, जिनमें अनुमानका सुबोध और सरल भाषामें विवेचन उपलब्ध है।
(ख) वैशेषिक-दर्शनमे अनुमानका विकास
वैशेषिकदर्शनसुत्रप्रणेता कणादने स्वतन्त्र दर्शनका प्रणयन करके उसमें पदार्थकी सिद्धि (व्यवस्था) प्रत्यक्षके अतिरिक्त लैगिक द्वारा भी प्रतिपादित की है और हेतु, अपदेश, लिंग, प्रमाण जैसे हेतुवाची पर्यायशब्दोका प्रयोग तथा कार्य, कारण, सयोगि, विरोधि एव समवाय इन पाच लैगिकप्रकारो और त्रिविध हेत्वाभासोंका निर्देश किया है। उनके इस संक्षिप्त अनुमान-निरूपणमें अनुमानका सूत्रपात मात्र दिखता है, विकसित रूप कम मिलता है। पर उनके भाष्यकार प्रशस्तपादके भाष्यमें अनुमान-समीक्षा विशेष रूपमें उपलब्ध होती है । अनुमानका लक्षण प्रशस्तपादने इस प्रकार दिया है-लिंगवर्शनात्सजायमान लैंगिकम् अर्थात् लिंगदर्शनसे होनेवाले जानको लैगिक कहते हैं। इसी सन्दर्भमें उन्होंने लिंगका स्वरूप बतलानेके लिए काश्यपकी दो कारिकाएँ उद्धत की है जिनका आशय प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो अनुमेय अर्थके साथ किसी देशविशेष या कालविशेषमें सहचरित हो, अनु मेयधर्मसे समन्वित किसी दूसरे सभी अथवा एक स्थानमें प्रसिद्ध (विद्यमान) हो और अनमेयसे विपरीत सभी स्थानोंमें प्रमाणसे असत (व्यावत्त) हो अप्रसिद्ध अर्थका अनुमापक लिंग है। किन्तु जो ऐसा नही वह अनुमेय के ज्ञानमे लिंग नही है-लिंगाभास है। इस प्रकार प्रशस्तपादने सर्वप्रथम लिंगको त्रिरूप वणित किया है। बौद्ध ताकिक दिनागने भी हेतको त्रिरूप बतलाया है । सम्भवत वह प्रशस्तपादका अनुसरण है ।
१ व्याप्तिग्रहश्च सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्या सकलधूमादिविषयक । यदि सामान्यलक्षणा नास्ति तदा ।
-वहीं, पृष्ठ ४३३, ४५३ । २ वैशेषि० द०१०११३, तथा ९।२।१,४ । ३ प्रश० भा०, पृष्ठ ९९ । ४,५ वही, पृ० १००, १०१ । ६ हेतुस्त्रिरूप । किं पुनस्त्ररूप्यम । पक्षधर्मत्व सपक्षे सत्त्व विपक्षे चासत्त्वमिति । -न्यायप्र० पृ० १ ।
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