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________________ परामर्शरूप' अनुमान-परिभापाका समर्थन करके उसे पुष्ट किया है। दो अवयवकी मान्यता भी उल्लेख करके उसकी समीक्षा प्रस्तुत की है। यह दो अवयवकी मान्यता धर्मकीर्तिकी' है । न्यायदर्शनमें अविनाभावका सर्वप्रथम स्वीकार या पक्षधर्मत्वादि पांच रूपोके अविनाभाव द्वारा सग्रहका विचार उन्हीके द्वारा प्रविष्ट हुआ है। लिंग-लिंगीके सम्बन्धको स्वाभाविक प्रतिपादन करना और उसे निरुपाधि अगीकार करना उन्हीकी सूझ है। ____ जयन्तभट्टका भी अनुमानके लिए कम महत्त्वपूर्ण योगदान नही है। उन्होने न्यायमजरी और न्यायकालिकामें अनुमानका सागोपाग निरूपण किया है। वे स्वतन्त्र चिन्तक भी रहे है । यहां हम उनके स्वतन्त्र विचारका एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । न्यायमञ्जरीमें हेत्वाभासोके प्रकरण में उन्होंने अन्यथासिद्धत्व नामके एक छठे हेत्वाभासकी चर्चा की है। सूत्रकारके उल्लघनकी बात उठनेपर वे कहते हैं कि सूत्रकारका उल्लघन होता है तो होने दो, सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक हेत्वाभासका अपह्नव नही किया जा सकता । पर अन्तमें वे उसे उद्योतक रफी तरह असिद्धवर्गमें अन्तर्भूत कर लेते हैं । 'अथवा' के साथ यह भी कहा है कि अप्रयोजकत्व (अन्यथासिद्धत्व) सभी हेत्वाभासवृत्ति अनुगत सामान्यरूप है । न्यायकलिकामें भी यही मत स्थिर किया है। समव्याप्ति और विषमव्याप्तिका निर्देश भी उल्लेखनीय है । अवयव-समीक्षा, हेतुसमीक्षा आदि अनुमान-सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण है। उदयनका चिन्तन सामान्यतया पूर्वपरम्पराका समर्थक है, किन्तु अनेक स्थलोपर उनकी स्वस्थ और सूक्ष्म विचारधारा उनकी मौलिकताका स्पष्ट प्रकाशन करती है । उपाधि और व्याप्तिकी जो परि- । भाषाएँ उन्होने प्रस्तुत की उत्तरकालमें उन्हीको केन्द्र बनाकर पुष्कल विचार हुआ है। अनुमानके विकासमें अभिनव क्रान्ति उदयनसे आरम्भ होती है। सूत्र और व्याख्यापद्धतिके स्थानमें करण-पद्धतिका जन्म होता है और स्वतन्त्र प्रकरणो द्वारा अनमानके स्वरूप, आधार, अवयव, परामर्श, व्याप्ति, उपाधि, हेतु एव पक्ष-सम्बन्धी दोषोंका इस कालमें सूक्ष्म विचार किया गया है। गगेशने तत्त्वचिन्तामणिमें अनुमानकी परिभाषा तो वही दी है जो उद्योतकरने न्यायवार्तिकमें उपस्थित की है, पर उनका वैशिष्ट्य यह है कि उन्होने अनुमितिकी ऐसी परिभाषा" प्रस्तुत की है जो न्यायपरम्परामें अब तक प्रचलित नही थी। उसमें प्रयुक्त व्याप्ति और पक्षधर्मता पदोका उन्होने सर्वथा अभिनव १ 'अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि " -वादन्याय० पृ० ६१ । किन्तु धर्मकीर्ति, न्यायबिन्दु (पृ० ९१ ) में दृष्टान्तको हेतुसे पृथक् नही मानते और हेतु को ही सावनावयव बतलाते है । प्रमाणवार्तिक (१-१२८) में भी 'हेतुरेव हि केवल' कहते हैं। २ न्यायमजरी पृष्ठ १३१, १६३-१६६ । ३ मप्रयोजकत्व च सर्वहेत्वाभासानामनुगत रूपम् ।-न्यायक० पृष्ठ १५ । ४ किरणावली० पृष्ठ २६७ । ५ तत्र व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानजन्य ज्ञानमनुमिति., तत्करणमनुमानम् । -त० चि०, अनुमानलक्षण, पृष्ठ १३ । ६ नन्वनुमितिहेतुन्याप्तिज्ञाने का व्याप्ति । न तावदव्यभिचरितत्वम । नापि ।अत्रोच्यते । प्रतियोग्य सामानाधिकरणयत्सामानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्न यन्न भवति तेन सम तस्य सामानाधिकरण्य व्याप्ति । -त० चि०, अनुमानलक्षण, पृष्ठ ७७, ८६, १७१, १७८, १८१, १८६-२०९ । ७ वही, पृष्ठ ६३१ । १२८
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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