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जैन दर्शनमें सर्वज्ञता तज्जयति पर ज्योतिः सम समस्तैरनन्तपर्याय । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
-अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय १ । पृष्ठभूमि
भारतीय दर्शनोमें चार्वाक और मीमासक इन दो दर्शनोको छोडकर शेष सभी (न्याय-वैशेषिक, साख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञताको सम्भावना करते तथा युक्तियो द्वारा उसकी स्थापना करते हैं। साथ ही उसके सद्भावमें आगम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रामें उपस्थित करते हैं। चार्वाक दर्शनका दृष्टिकोण
चार्वाक दर्शनका दृष्टिकोण है कि 'यदृश्यते तदस्ति, यन्न दृश्यते तन्नास्ति'-इन्द्रियोसे जो दिखे वह है और जो न दिखे वह नही है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार भूत-तत्त्व ही दिखाई देते हैं । अत वे है । पर उनके अतिरिक्त कोई अतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टिगोचर नही होता । अत वे नही हैं । सर्वज्ञता किसी भी पुरुषमें इन्द्रियो द्वारा ज्ञात नहीं है और अज्ञात पदार्थका स्वीकार उचित नही है । स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणके अलावा अनुमानादि कोई प्रमाण नही मानते । इसलिए इस दर्शनमें अतीन्द्रिय सर्वज्ञकी सम्भावना नही है। मीमासक दर्शनका मन्तव्य
___ मीमासकोका मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता, नरक, नारकी आदि अतीन्द्रिय पदार्थ हैं तो अवश्य, पर उनका ज्ञान वेदद्वारा ही सभव है, किसी पुरुषके द्वारा नही । पुरुष रागादि दोषोंसे युक्त हैं और रागादि दोष पुरुषमात्रका स्वभाव है तथा वे किसी भी पुरुषसे सर्वथा दूर नही हो सकते । ऐसी हालतमें रागी-द्वेषी-अज्ञानी पुरुषोके द्वारा उन धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान सभव नही है। शवर स्वामी अपने शावर-भाष्य (१-१-५) में लिखते हैं
'चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमल नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।'
इससे विदित है कि मीमासक दर्शन सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोका ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता है। किसी इन्द्रियके द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नही मानता। शवर स्वामीके परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान भट्ट कुमारिल भी किसी पुरुषमें सर्वज्ञताकी सम्भावनाका अपने मीमासाश्लोकवातिकमें विस्तारके साथ
१ तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्ग-देवताऽपूर्व-प्रत्यक्षकरणे क्षम ॥
-भट्ट कुमारिल, मीमासाश्लोकवा० ।