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सन्यासका विधान करनेवाले कतिपय मतोंका उल्लेख किया है। उनमें कहा गया है कि 'सन्यास लेनेवाला) आतुर अथवा दुखित यह सकल्प करता है कि 'मैंने जो अज्ञान, प्रमाद या आलस्य दोषसे बुरा कर्म किया उसे | मैं छोड़ रहा हूँ और सब जीवोंको अभय-दान देता हूँ तथा विचरण करते हुए किसी जीवकी हिंसा नहीं करूंगा।' किन्तु यह कथन सन्यासीके मरणान्त-समयके विधि-विधानको नही बतलाता, केवल सन्यास लेकर आगे की जानेवाली चर्यारूप प्रतिज्ञाका दिग्दर्शन कराता है। स्पष्ट है कि यहां सन्यासका वह अर्थ विवक्षित नही है जो जैन-सल्लेखनाका अर्थ है । सन्यासका अर्थ यहाँ साधुदीक्षा-कर्मत्याग-सन्यासनामक चतुर्थ । आश्रमका स्वीकार है और सल्लेखनाका अर्थ अन्त (मरण) समयमें होनेवाली क्रिया-विशेपकपाय एव कायका कृशीकरण करते हुए आत्माको कुमरणसे बचाना तथा आचरित सयमादि आत्म-धर्मको रक्षा करना)। है । अत सल्लेखना जैनदर्शनकी एक विशेप देन है, जिसमें पारलौकिक एव आध्यात्मिक जीवनको उज्ज्व-- लतम तथा परमोच्च बनानेका लक्ष्य निहित है। इसमें रागादिसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति न होनेके कारण वह शुद्ध आध्यात्मिक है । निष्कर्ष यह है कि सल्लेखना आत्म-सुधार एव आत्म-सरक्षणका अन्तिम और विचारपूर्ण प्रयत्न है।
१ सन्यसेद् ब्रह्मचर्याद्वा संन्यसेच्च गहादपि ।
वनाद्वा प्रवद्विद्वानातुरो वाऽथ दुखित ।। उत्पन्ने सकटे घोरे चौर-व्याघ्रादि-गोचरे । भयभीतस्य सन्यासमङ्गिरा मनुरब्रवीत् ।। यत्किचिद्बाधक कर्म कृतमज्ञानतो मया । प्रमादालस्यदोषाद्यत्तत्तत्सत्यक्तवानहम् ।। एव सत्यज्य भूतेभ्यो दद्यादमयदक्षिणाम् । पदण्या कराव्या विहरन्नाह वाक्कायमानस ॥
करिष्ये प्राणिना हिंसा प्राणिन सन्तु निर्भया ।-कमलाकरभट्ट, निर्णयसिन्धु पृ० ४४७ । २ वैदिक साहित्यमें यह क्रिया-विशेष भृगु-पतन, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश आदिके रूपमें मिलती है।
जैसा कि माघके शिशुपालवधकी टीकामें उद्धृत निम्न पद्यसे जाना जाता है - अनुष्ठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यत । भृग्वग्नि-जल-सम्पार्मिरण प्रविधीयते ।।-शिशुपालवध ४-२३ की टीकामें उद्धृत ।
किन्तु जैन सस्कृतिमें इस प्रकारकी क्रियाओको मान्यता नहीं दी गई और उन्हें लोकमूढता बतलाया गया है - आपगा-सागर-स्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढ निगद्यते ।।-समन्तभद्र, रत्नकरण्ड० १-२२ ।