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दर्शन, जीवन और जगत्
आत्मोत्पत्ति का कारण है। यद्यपि इन चारों तत्त्वों में भिन्न-भिन्न रूप से चेतना नहीं है, तथापि जिस समय ये चारों तत्त्व एक विशिष्ट रूप में एकत्र होते हैं उस समय उनसे चेतना उत्पन्न हो जाती है । इस प्रकार चेतना भूत से भिन्न नहीं है, अपितु भौतिक है । चार्वाक दर्शन का यह पक्का विश्वास है कि दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है, जो न भूत हो न भौतिक हो । प्रत्येक पदार्थ या तो भूत है या भौतिक है। जो न तो भूत है न भौतिक ही है वह केवल असत् है-अभाव है । चार्वाक की इस मान्यता को दृष्टि में रखते हुए हम उसे जड़ाद्वैतवादी कह सकते हैं किन्तु यह जड़ाद्वैत ग्रीक दार्शनिक थेलिस, एनाक्सिमेनेस, हेराक्लिटस प्रादि के ढंग का न होकर नानार्थवाद के ढंग का है। उसे चतुर्भूतवादी या चतुर्भूतजड़ाहतवादी कहना भी अनुचित नहीं है। जैन दर्शन का यथार्थवाद : . साधारणतया जैन दर्शन दो तत्त्व मानता है-जीव और अजीव। जीव तत्त्व का अर्थ है वह तत्त्व जिसमें चेतना है, ज्ञान है, उपयोग है। चेतना, ज्ञान और उपयोग प्रायः एक ही अर्थ के वाचक हैं । अजीव तत्त्व अचेतन है-जड़ है। इन दो तत्त्वों के आधार पर ही पांच, छः या नव तत्त्व बनते हैं। मुख्य रूप से दो ही तत्त्व हैं, किन्तु इन दोनों तत्त्वों के विश्लेषण या अवस्थाविशेष से भिन्न-भिन्न सख्यक तत्त्वों की रचना व बोध होता है। अनुयोगद्वार (सूत्र १२३) में कहा गया है-'अविसेसिए दवे, विसेसिए जीवदव्वे अजोवदव्वे य' अर्थात् सामान्यरूप से द्रव्यद्रव्य रूप से एक है, विशेषरूप से द्रव्य जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य रूप से दो हैं । यह विभाजन अपेक्षाकृत है। केवल द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो एक ही तत्त्व होगा और वह होगा द्रव्यसामान्य । यह द्रव्य सामान्य वेदान्त या चार्वाक की तरह केवल चेतन या केवल जड़ नहीं है, अपितु उसके भीतर जड और चेतन दोनों पाते है और दोनों ही यथार्थ हैं। इसीलिए विशेषरूप से द्रव्य के दो भेद किए गए हैं-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। यहाँ पर इस बात का
राप ध्यान रखना चाहिए कि जैन दर्शन में तत्त्व, द्रव्य, सत्,