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दर्शन, जीवन और जगत्
नहीं है, और प्रकृति की सत्ता पुरुष से भिन्न है । पुरुष न तो वास्तव में बद्ध होता है, न मुक्त । संसार का जितना भी प्रपंच और खेल है, सब प्रकृति को ही माया है । पुरुष तो एक द्रष्टामात्र है, जो चुपचाप सब कुछ देखा करता है । वह न तो कुछ करता है, न वास्तव में कुछ भोगता है । प्रकृति जड़ है और पुरुष चित् है । प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच तन्मात्राएँ, ये सोलह और इन सोलह में से पाँच तन्मात्राओं से पाँच भूत, इस प्रकार एक ही प्रकृति से सारे संसार की उत्पत्ति होती है ।
रामानुज भी चित् तत्त्व और जड़ तत्त्व दोनों को स्वतन्त्र मानता है । चित् ज्ञान का आश्रय है । ज्ञान और चित् दोनों का शाश्वत सम्बन्ध है | जड़ तत्त्व तीन भागों में विभक्त हैपहला वह, जिसमें केवल सत्त्व है । दूसरा वह, जिसमें तीनों गुण-सत्त्व, रजस् और तमस् हैं । तीसरा वह, जिसमें एक भी गुण नहीं है । यह तत्त्व नित्य है, ज्ञान से भिन्न है और चित् से स्वतन्त्र है । यह परिवर्तनशील है । यद्यपि रामानुज विशिष्टाद्वैत वादी है, किन्तु वह यह कभी नहीं मानता कि जड़ और चित् किसी समय ब्रह्म में मिलकर एक रूप हो जाएँगे । दोनों तत्त्व हमेशा स्वतन्त्र रूप से जगत् में रहेंगे । इस दृष्टि से दोनों तत्त्वों का आधार ब्रह्म भले ही हो, किन्तु दोनों कभी भी एक रूप न होंगे । ग्रतः रामानुज को यथार्थवादी कहना उचित ही है ।
मध्व तो स्पष्ट रूप से द्वैतवादी है । वह रामानुज की तरह विशिष्टाद्वैत में विश्वास नहीं रखता। उसकी दृष्टि में जड़ और चित् दोनों सर्वथा स्वतन्त्र एवं भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । उनका कोई सामान्य आधार नहीं है । वे अपने आप में पूर्ण स्वतन्त्र एवं सत् हैं । वे ब्रह्म या अन्य किसी भी तत्त्व के गुण नहीं हैं अपितु स्वयं द्रव्य हैं ।
न्याय और वैशेषिक पक्के यथार्थवादी हैं. इसमें तनिक भी संशय नहीं । वैशेषिक दर्शन द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और प्रभाव - इस प्रकार सात पदार्थों को यथार्थं मानता है । नैयायिक लोग प्रमारण प्रमेय आदि सोलह पदार्थ मानते हैं ।