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दर्शन, जीवन और जगत्
तरह कि मेरी उससे भिन्न स्वतन्त्र सत्ता है । जिस प्रकार मेरी चैतन्य शक्ति अपने अस्तित्व के लिए फुल की सत्ता पर निर्भर नहीं है, उसी प्रकार फूल की सत्ता भी अपने ग्रस्तित्व के लिए मुझ पर निर्भर नहीं है । इतना ही नहीं, ग्रपितु किसी ग्रन्य चैतन्य शक्ति, ज्ञान, विचारधारा या प्राध्यात्मिक तत्त्व पर भी ग्रवलम्बित नहीं है । वह ग्रपने आप में सत् है, जड़ रूप से सत् है, भौतिक रूप से सत् है, आध्यात्मिक तत्त्व से भिन्न स्वतन्त्र रूप से सत् है । उसकी सत्ता का आधार न कोई वैयक्तिक विचारधारा है, और न किसी - प्रकार की सार्वभौम ज्ञानधारा या सार्वत्रिक प्राध्यात्मिक सत्ता है । वह स्वयं सत् है, स्वयं यथार्थ है, स्वयं तत्त्व है । हाँ, यह ठीक है कि उसका किसी अन्य तत्त्व से सम्बन्ध हो सकता है, वह किसी ज्ञान के लिए ज्ञेय बन सकता है, किन्तु उसकी सत्ता या अस्तित्व किसी पर निर्भर नहीं है । वह अपने कारणों से उत्पन्न होता है, और ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है । चेतन और जड़ में ज्ञाताज्ञेय सम्बन्ध हो सकता है, उत्पाद्योत्पादक सम्बन्ध नहीं ।
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वाह्य भौतिक पदार्थों की सिद्धि के लिए यथार्थवादी ग्रनेक हेतु उपस्थित करते हैं । उनमें प्रधान हेतु यह है कि यदि वाह्य पदार्थ न हो, तो इन्द्रिय- प्रत्यक्ष ( Sensation ) नहीं हो सकता । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष के लिए यह आवश्यक है कि उस प्रत्यक्ष का कोई बाह्य कारण विद्यमान हो । वाह्य कारण के प्रभाव में यह व्यवस्था नहीं हो सकती कि अमुक इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का ग्रमुक विषय है । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष उसी पदार्थ को अपना विषय बनाता है, जो उसकी सीमा के भीतर होता है । प्रत्येक इन्द्रिय की भिन्न-भिन्न योग्यता होतो है, और उसी योग्यता के अनुसार वह इन्द्रिय किसी पदार्थ को अपना विषय बनाती है । चक्षुरिन्द्रिय की अपनी सीमा है, घ्राणेत्रिय की अपनी योग्यता है, रसनेन्द्रिय का अपना क्षेत्र है । इसी प्रकार दूसरी इन्द्रियों की भी अपनी-अपनी मर्यादाएँ हैं । वाह्य पदार्थ मुकदूरी पर अमुक स्थिति में अमुक योग्यता वाला हो तो वह अमुक परिस्थिति में ग्रमुक व्यक्ति की ग्रमुक इन्द्रिय का प्रमुक सीमा तक विषय वन सकता है । इस प्रकार बाह्य पदार्थ की मर्या