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. . . . - जैन-दर्शनmenon) और पारमार्थिक जगत् (Noumenon) के रूप में विभाजन करता है।
हेगल ने जगत् का अन्तिम तत्त्व विचार माना। उसने कहा कि विचार की भूमिका पर ही सारा जगत् टिक सकता है । यह विचार तत्त्व बर्कले की तरह वैयक्तिक न होकर सार्वत्रिक है। साथ ही साथ सापेक्ष न होकर निरपेक्ष है.। हेगल यह भी मानता है कि तक, हेतु
आदि इसी विचार के पर्याय हैं । विचार, तर्क, हेतु आदि में कोई भेद नहीं है । यह निरपेक्ष विचार ( Absolute Thought) स्थितिशील (Static) न होकर गतिशील (Dynamic) है । इसी गतिशीलता के कारण हेगल के दर्शन में डाइलेक्टिक (Dialectic) का जन्म होता है जो 'वधि (Thesis), निषेध (Anti-thesis) और समन्वय (Synthesis) के रूप में परिणत होता है। निरपेक्ष सार्वत्रिक सत्य तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि विधि और निषेध का सामना करते हुए समन्वय तक पहुँचा जाय । यह समन्वय की भूमिका ही अन्तिम है। इस भूमिका पर पहुँचते ही जगत् की सारी विप्रतिपत्ति (Contradiction) शान्त हो जाती है । विश्व का सम्पूर्ण विरोध, जो कि विधि
और निषेध रूप से हमारे सामने आता है, स्वतः शान्त हो जाता है। विधि और निषेध वास्तव में तभी तक परस्पर विरोधी मालूम होते हैं जब तक कि वे हमारे सीमित अनुभव के. स्तर पर रहते हैं। असीम स्तर पर पहुँच जाने पर उनका विरोध अपने आप ही शान्त हो जाता है क्योंकि वहाँ पर एक प्रकार की आध्यात्मिक एकता (Spiritual Unity) रहती है । सार्वत्रिक निरपेक्ष तत्त्व के पेट में सब समा जाते हैं। इसी स्थिति का नाम समन्वय है । समन्वय की इस स्थिति में किसी का नाश या अभाव नहीं होता अपितु सबको उचित स्थान प्राप्त हो जाता है । यही हेगल का निरपेक्ष आदर्शवाद या विचारवाद है। . ... - - हेगल के बौद्धिक नेतृत्व का अनुसरण करते हुए ब्रेडले ने यह सिद्ध किया कि द्रव्य, गुण, कर्म, आकाश, काल, कार्य, कारण आदि का
आधार अनेक विरोधी विचारों को उत्पन्न करता है। उसने इन सब • प्रतीयमान तत्त्वों को आभास (Appearance) कहा । वास्तविक तत्त्व