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जैन-दर्शन
बौद्ध-बुद्ध की शिक्षाओं का ध्येय भी यही है कि प्राणी संसारी दुःख से मुक्त हो । दुःख प्रथम आर्यसत्य है । संसारावस्था के पाँच स्कन्धों को छोड़ कर दुःख और कुछ नहीं है । ये पाँच स्कन्ध हैं-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप। जिस समय ये पाँचों स्कन्ध समाप्त हो जाते हैं, दुःख स्वतः समाप्त हो जाता है । ये स्कन्ध कैसे समाप्त हो सकते हैं ? इनकी परम्परा किन कारणों से बराबर चलती रहती है ? परम्परा समाप्त होने के बाद क्या अवस्था होती है ? इत्यादि प्रश्नों के फलस्वरूप तीन अन्य आर्य सत्य प्रादुर्भूत होते हैं। इन चारों आर्य सत्यों के आधार पर सम्पूर्ण बौद्धदर्शन विकसित होता है । आर्यसत्यों के नाम ये हैंदुःख, समुदय, मार्ग और निरोध । दुःख का स्वरूप पाँच स्कन्धों के रूप । में बता दिया गया है। समुदय उसे कहते हैं जिसके कारण रागादि भावनाएं उत्पन्न होती हैं । यह मेरी आत्मा है, ये मेरे पदार्थ हैं—इत्यादि रूप ममत्व ही समुदय है । मार्ग का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि 'सारे संस्कार क्षणिक हैं-कुछ भी नित्य नहीं है' इस प्रकार की वासना ही मार्ग है । सब प्रकार के दुःखों से मुक्ति मिलने का नाम ही निरोध है ।' निरोधावस्था में आत्मा का एकान्त अभाव हो जाता है। कुछ अाधुनिक विचारक इस एकान्त अभाव की परम्परा को चुनौती देते हैं। उनका कथन है कि बौद्धदर्शन प्रतिपादित मोक्षावस्था भावात्मक है । उनकी विचारधारा के अनुसार माध्यमिक का शून्यवाद (Nihilism) अर्थ ठीक नहीं। जो कुछ भी हो । यहाँ पर हम इस समस्या को अधिक महत्व न देते हुए इतना ही कहना चाहते हैं कि बौद्धदर्शन का मूल
१-दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च पंच प्रकीर्तिताः । विज्ञानं वेदना संज्ञा, संस्कारो रूपमेव च ।।
-षड्दर्शनसमुच्चय : बौद्धदर्शन । २-समुदेति यतो लोके, रागादीनां गणोऽखिलः ।
अात्माऽऽत्मीयभावाख्यः, समुदयः स उदाहृतः ॥ -वही ३---क्षणिकाः सर्व संस्कारा, इत्येवं वासना यका ।
स मार्ग इह विज्ञ यो निरोधो मोक्ष उच्यते ।। --वही