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दर्शन, जीवन और जगत् चारों भूतों के वापिस विखर जाने पर चेतना समाप्त हो जाती है। जो कुछ है वह या तो भूत है या भौतिक है। भूतों का अच्छे-से-अच्छे रूप में उपयोग करना, उनसे खूब सुख प्राप्त करना, जीवन में खूब आनंद लूटना, यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिए दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। दर्शनशास्त्र हमारे लिए ऐसी व्यवस्था करता है जिससे हमें अधिक-से-अधिक सुख मिल सके। इस प्रकार चार्वाक मत के अनुसार ऐहिक सुख की सिद्धि के लिए ही दार्शनिक 'विचारधारा का प्रादुर्भाव होता है।
जैन - जैन दर्शन का प्रधान प्रयोजन यह है कि जीव सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर अनन्त आध्यात्मिक सुख का उपभोग करे। यह दर्शन छ: मौलिक तत्त्वों के आधार पर सारे जगत् की व्यवस्था करता है । इन छ: तत्त्वों में जीव और पुद्गल ये दो तत्त्व ऐसे हैं, जिनके पारस्परिक सम्बन्ध के आधार पर प्राणियों को नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । जगत् के अन्दर प्राप्त होने वाला तथाकथित सख भी इन्हीं के सम्बन्ध का परिरगाम है। जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जब तक ये दोनों तत्त्व एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं हो जाते, अनन्त प्राध्यात्मिक सुख की प्राप्ति असम्भव है । अनादिकाल से परस्पर सम्बद्ध ये दोनों तत्त्व किस प्रकार अलग हो जाएं- इसका दिग्दर्शन करना, यही दर्शन का मुख्य प्रयोजन है। जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिल कर उस मार्ग का निर्माण करते हैं, जिस पर चलने से जीवन और पुद्गल अन्ततोगत्वा अलग-अलग हो जाते हैं। पुद्गल से सर्वथा मुक्त जीव ही शुद्ध प्रात्मा है, सिद्ध है, परमात्मा है । इस प्रकार की प्रात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से युक्त होती है। वह फिर कभी भी पुद्गल से सम्बद्ध नहीं होती। हमेशा स्वतन्त्र रहती है। इस प्रकार जैन दर्शन का उद्देश्य भी यही है कि प्राणी दुःख से छुटकारा पाकर सुख का उपभोग करे।
१-अन चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिला: । तुभ्यः खलु भुतेभ्यरचनन्यमुपजायते ॥३॥
-नर्वदर्शनसंग्रहः चार्वाकदर्शन ---सम्यग्दर्शनजानचारित्राणि मोक्षमार्गः। --तत्त्वार्थ नत्र, १/१/