________________
___ २६
दर्शन, जीवन और जगत् का प्रेम' (Love of Wisdom) अर्थ निकलता है। यहाँ पर 'बुद्धि' शब्द से सामान्य विचारशक्ति (Rationality) या प्राकृतिक बुद्धि (Intellect) नहीं समझकर 'विवेकयुक्त बुद्धि' समझना चाहिए।
आध्यात्मिक प्रेरणा-कुछ दार्शनिक ऐसे भी हैं, जो दर्शन को केवल बुद्धि का खेल नहीं समझते। उनकी धारणा के अनुसार दर्शन का प्रादुर्भाव मनुष्य के भीतर रही हुई आध्यात्मिक शक्ति के कारण होता है। अपने आसपास के वातावरण से अथवा जगत् के भीतर रही हुई अन्य भौतिक साधन-सामग्री से जब मनुष्य की आत्मा को पूर्ण संतोष नहीं होता, वह सारी सामग्री में किसी-न-किसी प्रकार की न्यूनता का अनुभव करता है, उसकी प्रान्तरिक आवाज के अनुसार उसे शाश्वत शांति व संतोप नहीं मिलता, तव वह नई खोज प्रारंभ करता है, आध्यात्मिक पिपासा की शान्ति के लिए नवकूप का निर्माण करना शुरू करता है, अान्तरिक प्रेरणा को सन्तुष्ट करने के लिए नई राह पकड़ता है। मनुष्य के इसी प्रयत्न को दर्शन का नाम दिया गया है। वह एक ऐसी चीज देखना चाहता है जिसे सामान्य चक्षु नहीं देख सकती, ऐसी वस्तु का अनुभव करना चाहता है जिसे साधारण इन्द्रियां नहीं पा सकती। भारतीय परम्परा के एक बहुत बड़े भाग का दार्शनिक ग्राधार यही है। वर्तमान से असंतोप और भविष्य की उज्ज्वलता का दर्शन, यही प्राध्यात्मिक प्रेरणा का मुख्य आधार है। जिसे वर्तमान से संतोष होता है वह भविष्य की प्राशा में वर्तमान को कदापि खतरे में नहीं डाल सकता । इसीलिए आध्यात्मिक प्रेरणा की सबसे पहली शर्त है, वर्तमान से असंतोष। केवल वर्तमानकालिक असंतोप से ही काम नहीं चलता, क्योंकि जबतक भविष्य की उज्ज्वलता का दर्शन नहीं होता तव तक वर्तमान को छोड़ने की भावना उत्पन्न नहीं हो सकती। इसीलिए वर्तमानकालीन असंतोप के साथ-ही-साथ भविष्यत्कालीन उज्ज्वलता का दर्शन भी आवश्यक है। इस प्रकार की प्रेरणा से जिस दर्शन का निर्माण होता है, वह दर्शन बहुत गम्भीर होता है, एवं उसका स्तर वहत ऊंचा होता है। भौतिक विचारधारा का व्यक्ति उससे बहुत दूर भागने का प्रयत्न करता है। उसे उसी रूप में ग्रहण करना, उसके लिए शाक्य नहीं होता।