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दर्शन, जीवन और जगत्
आश्चर्य-कुछ दार्शनिक यह मानते हैं कि मानव के चिन्तन का मुख्य आधार एक प्रकार का प्राश्चर्य है। मनुष्य जब प्राकृतिक कृतियों एवं शक्तियों को देखता है तब उसके हृदय में एक प्रकार का प्राश्चर्य उत्पन्न होता है । वह सोचने लगता है कि यह सारी लीला कैसी है ? इस लीला के पीछे किसका हाथ है ? जब उसे कोई ऐसी शक्ति प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि-गोचर नहीं होती, जो इस लीला के पीछे कार्य कर रही हो, तब उसका. पाश्चर्य और भी बढ़ जाता है । इस प्रकार आश्चर्य से उत्पन्न हुई विचारधारा क्रमशः आगे बढ़ती जाती है और मनुष्य नाना प्रकार की युक्तियुक्त कल्पनाओं द्वारा उस विचारपरम्परा को सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है । यही प्रयत्न आगे जाकर दर्शन में परिवर्तित हो जाता है। प्लेटो तथा अन्य प्रारंभिक ग्रीक दार्शनिकों ने आश्चर्य के आधार पर ही दार्शनिक भित्ति का निर्माण किया था।
सन्देह-कुछ दार्शनिकों का विश्वास है कि दर्शन की उत्पत्ति आश्चर्य से नहीं, अपितु सन्देह से होती है । जिस समय बुद्धिप्रधान मानव बाह्य-जगत् अथवा अपनी सत्ता के किसी भी अंश के विषय में सन्देह करने लगता है, उस समय उसकी विचारशक्ति जिस मार्ग का पालम्बन लेती है, वही मार्ग दर्शन का रूप धारण करता है । पश्चिम में अर्वाचीन दर्शन का प्रारम्भ सन्देह से ही होता है । यह प्रारम्भ बेकन से समझना चाहिए, जिसने विज्ञान और दर्शन के सुधार के लिए धार्मिक उपदेशों ( Teachings of the Church ) को सन्देह की दृष्टि से देखना शुरू किया। उसने सुधार का मुख्य अाधार सन्देह माना और इसी आधार पर अपनी विचार-धारा फैलाई । इसी प्रकार डेकार्ट ने भी सन्देह के आधार पर ही दर्शन की नींव डाली। उसने स्पष्टरूप से कहा कि दर्शन का सर्वप्रथम आधार सन्देह है । पहले पहल उसने अपने स्वयं के अस्तित्व पर ही सन्देह किया कि मैं हैं या नहीं ? इसी सन्देह के आधार पर उसने यह निर्णय किया कि मैं अवश्य हूँ, क्योंकि यदि मेरा खुद का अस्तित्व ही न होता तो सन्देह करता ही कौन ? जहाँ सन्देह होता है वहाँ
१. “Cogito ergo snm"-I think therefore I exist.