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जैन-दर्शन
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वे नियम अन्तिम रूप से सही समझ लिए जाते हैं । ऐसे प्रमाणित नियम ही विज्ञान की दृष्टि में प्रमाणभूत सामान्य नियम माने जाते हैं । इन्हीं नियमों को सर्वव्यापी या सार्वत्रिक नियम (Universal Rules) कहते हैं । ये सार्वत्रिक नियम ही विज्ञान के प्राण हैं । यह हम पहले ही देख चुके हैं कि इन नियमों का मुख्य आधार हमारा अनुभव है । अनुभव के साथ नियमों का मेल ही विज्ञान का कार्य है । ऐन्स्टन के शब्दों में विज्ञान का कार्य यही है कि वह हमारे अनुभवों का अनुसरण करता है और साथ ही साथ उन्हें एक तर्कसंगत प्रणाली में जमा देता है |
धर्म और दर्शन :
धर्म और दर्शन के प्रश्न को लेकर मुख्य रूप से दो प्रकार की विचारधाराएँ कार्य कर रही हैं । एक विचारधारा के अनुसार धर्म और दर्शन अभिन्न हैं । दूसरी विचारधारा इस मत से बिलकुल विपरीत है । वह इस मत की पुष्टि करती है कि धर्म और दर्शन का एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं । धर्म का क्षेत्र बिलकुल अलग है और दर्शन का क्षेत्र उससे बिलकुल भिन्न है । दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हैं । उदाहरण के तौर पर हरमन स्पष्ट शब्दों में कहता है कि धार्मिक व्यक्ति का इससे कोई प्रयोजन नहीं कि दर्शन की अमुक शाखा ईश्वरवाद का समर्थन करती है या अनीश्वरवाद की स्थापना करती है । हेगल ने ठीक इससे विपरीत बात कही । उसके मतानुसार धर्म की सत्यता दर्शन में ही पाई जाती है । इस प्रकार की विरोधी विचारधाराओं को देखने से यही मालूम होता है कि भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से भिन्न-भिन्न विचारकों ने धर्म और दर्शन की भिन्न-भिन्न व्याख्या की है । उस व्याख्या के अनुसार अमुक विचारक धर्म को दर्शन से अभिन्न मानता है तो अमुक विचारक धर्म से दर्शन को भिन्न मानता है । वास्तव में धर्म और दर्शन का क्षेत्र भिन्नभिन्न है । यदि दोनों एक ही होते तो दो दृष्टियों की आवश्यकता ही न होती । धर्म की अपनी दृष्टि होती है और दर्शन की अपनी दृष्टि होती है । दोनों को एकान्त रूप से ग्रभिन्न कहना तर्क, और श्रद्धा का सांकर्य करना है । दोनों के भेद का सर्वथा नाश करना, विचार
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