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जैन-दर्शन
__सामान्य और विशेष के आधार पर इनका द्रव्याथिक और पर्यायाथिक में विभाजन किसी खास दृष्टि से किया गया है। पहले के तीन नय सामान्य तत्त्व की ओर विशेषरूप से झुके हुए हैं, और बाद के चार नय विशेष तत्त्व पर अधिक भार देते हैं। प्रथम तीन नयों में सामान्य का विचार अधिक स्पष्ट है और शेष चार में विशेष का विचार अधिक स्पष्ट है । सामान्य और विशेष की इसी स्पष्टता के कारण सात नयों को द्रव्याथिक पर्यायाथिक में विभक्त किया गया है। वास्तविकता यह है कि सामान्य और विशेष दोनों एक ही तत्त्व के दो अविभाज्य पक्ष हैं । ऐसी स्थिति में एकान्तरूप सामान्य का या विशेष का ग्रहण सम्भव नहीं। .
अर्थनय और शब्दनय के रूप में जो विभाजन किया गया है, वह भी इसी प्रकार का है। वास्तव में शब्द और अर्थ एकातिरूप से भिन्न नहीं हो सकते । अर्थ की प्रधानता को ध्यान में रखते हुए प्रथम चार नयों को अर्थनय कहा गया है। शब्द-प्राधान्य की दृष्टि से शेष तीन नय शब्दनय की कोटि में आते हैं । इस प्रकार पूर्व पूर्व नय से उत्तर उत्तर नय में विषय की सूक्ष्मता की दृष्टि से, सामान्य और विशेष की दृष्टि से, अर्थ और शब्द की दृष्टि से भेद अवश्य है, किन्तु यह भेद ऐकान्तिक नहीं है ।