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जैन दर्शन में नयवाद
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अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा हो, उसी समय उसे शक कहना चाहिए । आगे और पीछे शक का प्रयोग करना, इस नय की दृष्टि में ठीक नहीं । ध्वंस करते समय ही उसे पुरन्दर कहना चाहिए, पहले या बाद में नहीं । इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा आदि शब्दों के प्रयोग में भी समझना चाहिए। नयों का पारस्परिक सम्बन्ध :
उत्तर-उत्तर नय का विपय पूर्व-पूर्व नय से कम होता जाता है। नेगम नय का विपय सबसे अधिक है, क्योंकि वह सामान्य और विशेष-भेद और अभेद दोनों का ग्रहण करता है । कभी सामान्य को मुख्यता देता है और विशेप का गौण रूप से ग्रहण करता है, तो कभी विशेष का मुख्यरूप से ग्रहण करता है और सामान्य का गौरणरूप से अवलम्बन करता है । संग्रह का विपय नैगम से कम हो जाता है, वह केवल सामान्य अथवा अभेद का ग्रहण करता है । व्यवहार का विषय संग्रह से भी कम है, क्योंकि वह संग्रह द्वारा गृहीत विषय का ही कुछ विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करता है । ऋजुसूत्र का विषय व्यवहार से कम है, क्योंकि व्यवहार त्रैकालिक विषय की सत्ता मानता है, जब कि ऋजुसूत्र वर्तमान पदार्थ तक ही सीमित रहता है, अत: यहीं से पर्यायार्थिक नय का प्रारम्भ माना जाता है । शब्द का विषय इससे भी कम है, क्योंकि वह काल, कारक, लिंग, संख्या प्रादि के भेद से अर्थ में भेद मानता है । समभिरूढ़ का विषय शब्द से कम है। क्योंकि वह पर्याय-व्युत्तत्तिभेद से अर्थभेद मानता है, जब कि शब्द पर्यायवाची शब्दों में किसी तरह का भेद अङ्गीकार नहीं करता । एवम्भूत का विषय समभिरूढ़ से भी कम है. क्योंकि वह अर्थ को तभी उस दाद द्वारा वाच्य मानता है, जव अर्थ अपनी व्युत्पत्तिमूलक मिया में लगा हुआ हो । अतएव यह स्पष्ट है कि पूर्व पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होता जाता है। उत्तर उत्तर नय का विषय पूर्व पूर्व नय के विषय पर ही सवलम्बित रहता है। प्रत्येक का विषय-क्षेत्र उत्तरोत्तर कम होने से इनका पाल्परिक पौर्वापर्य सम्बन्ध है।