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________________ जैन-दर्शन में नयवाद ३३६ -- के लिए परशु का प्रयोग। शब्दनय इन सबमें भेद मानता है । संख्या तीन प्रकार की है.---एकत्व, द्वित्व और बहुत्व । एकत्व में द्वित्व का प्रयोग होता है -जैसे नक्षत्र भौर पुनर्वसु । एकत्व में बहुत्व का प्रयोग किया जाता है-जैसे नक्षत्र और शतभिपक् । द्वित्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे जिनदत्त, देवदत्त और मनुष्य । द्वित्व में वहुत्व का प्रयोग होता है-जैसे पुनर्वसु और पंचतारका । बहुत्व में एकत्व का प्रयोग होता है-जैसे आम और बन । बहुत्व में द्वित्व का अभिधान किया जाता है-जैसे देवमनुष्य और उभय राशि । शब्दनय इन प्रयोगों में भेद का व्यवहार करता है । काल के भेद मे अर्थभेद का उदाहरण है --'काशी नगरी थी और काशी नगरी है।' इन दोनों वाक्यों के अर्थ में जो भेद है, वह शब्दनय के कारण है । कारकभेद से अर्थभेद हो जाता है-जैसे मोहन को, मोहन के लिए, मोहन से आदि गब्दों के अर्थ में भेद है । इसी प्रकार उपसर्ग के कारण भी एक ही धातु के भिन्न-भिन्न अर्थ हो जाते हैं । संस्थान, प्रस्थान, उपस्थान आदि के अर्थ में जो विभिन्नता है, उसका यही कारण है। 'सम्' उपसर्ग लगाने से संस्थान का अर्थ प्राकार हो गया, 'प्र' उपमग लगाने से प्रस्थान का अर्थ गमन हो गया, और 'उप' उपसर्ग लगाने से उपस्थान का अर्थ उपस्थिति हो गया । इस तरह विविध संयोगों के आधार पर विविध शब्दों के अर्थभेद की जो अनेक परम्पराएँ प्रचलित हैं, वे सभी शब्दनय के अन्तर्गत आ जाती हैं। गव्दयास्त्र का जितना विकास हुया है उसके मूल में यही नय रहा है। समभिरूढ़-गब्दनय काल, कारक, लिंग ग्रादि के भेद से ही अर्थ में भेव मानता है । एक लिंग वाले पर्यायवाची शब्दों में किसी प्रकार का भेद नहीं मानता । मनभेद के आधार पर अर्थभेद करने वाली बुद्धि जब कुछ और प्रागे बढ जाती है और व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर पर्यायवाची टाब्दों में अर्थभेद मानने के लिए तैयार हो जाती है, नव नमभिरुनय की प्रवृत्ति होती है । यह नय कहता है कि केवल पाल बादि भेदने व्यर्षभेद मानना ही काफी नहीं है अपितु व्युत्पत्तिमूलक मदभेदने भी प्रर्षभेद मानना चाहिए। प्रत्येक गदापनी-अपनी
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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