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जैन-दर्शन
नहीं होते, इसका भी समाधान करने का प्रयत्न किया गया। जैनदर्शन की मौलिक धारणा अस्ति और नास्तिमूलक ही है । चार और सात भंग तो अस्ति और नास्ति की ही विशेष अवस्थाएँ हैं । अस्ति और नास्ति एक नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों विरोधी धर्म हैं। सप्तभंगी का दार्शनिक रूप :
वस्तु के अनेक धर्मों के कथन के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। किसी एक धर्म का कथन किसी एक शब्द से होता है । हमारे लिए यह सम्भव नहीं कि अनेकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का वर्णन कर सकें, क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का अर्थ है-सभी वस्तुओं का सम्पूर्ण वर्णन । सभी वस्तुएँ परस्पर सम्बन्धित हैं, अतः एक वस्तु के कथन के साथ अन्य वस्तुओं का कथन अनिवार्य है । ऐसी अवस्था में वस्तु का ज्ञान या कथन करने के लिए हम दो दृष्टियों का उपयोग करते हैं । इनमें से एक दृष्टि सकलादेश कहलाती है और दूसरी विकलादेश । सकलादेश का अर्थ । है किसी एक धर्म के साथ अन्य धर्मों का अभेद करके वस्तु का वर्णन करना। दूसरे शब्दों में एकगुण में अशेष वस्तु का संग्रह करना सकलादेश है। उदाहरण के लिए किसी वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन करते समय इतर धर्मों का अस्तित्व में ही समावेश कर लेना सकलादेश है। 'स्याद्रूपमेव सर्वम्' ऐसा जब कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है सभी धर्मों का अस्तित्व से अभेद । अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं, अत: 'कथंचित् सब है ही' (स्यादस्त्येव सर्वम्) यह कहना अनेकान्तवाद की दृष्टि से अनुचित नहीं है। एक धर्म में सारे धर्मों का समावेश या अभेद कैसे होता है ? किस दृष्टि से. एक धर्म अन्य धर्मों से अभिन्न है ? इसका समाधान करने के लिए कालादि पाठ
१–'एकगुणमुखेन शेषवस्तुरूपसंग्रहात सकलादेशः' ।
-तत्त्वार्थराजवातिक ४.४२११८