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जैन दर्शन
'अस्ति' और 'नास्ति' को मानने वाले दो एकान्तवादी पक्ष हैं । एक पक्ष कहता है कि सब सत् है - - ' सर्वमस्ति' । दूसरा कहता है कि सब ग्रसत् है - 'सर्वनास्ति' । बुद्ध ने इन दोनों पक्षों को एकान्तवादी कहा, यह ठीक है, किन्तु उन्होंने उनका सर्वथा त्याग कर दिया । उस त्याग को उन्होंने मध्यम मार्ग का नाम दिया । बुद्ध का यह मार्ग निषेधप्रधान है । महावीर ने दोनों पक्षों का निषेध न करके विधिरूप से अनेकान्तवाद द्वारा समर्थन किया। उन्होंने कहा कि 'सव सत् है' यह एकान्तदृष्टिकोण ठीक नहीं । इसी प्रकार 'सब असत् है, यह एकान्त दृष्टि भी उचित नहीं । जो सत् है, उसी को सत् मानना चाहिए । जो ग्रसत् है, उसी को सत् मानना चाहिए । सत् और असत् ग्रस्ति और नास्ति के भेद को सर्वथा लुप्त नहीं ग्रसत्--- करना चाहिए | सब अपने द्रव्य, क्षेत्र, आदि की अपेक्षा से सत् है । पर द्रव्य, क्षेत्र आदि की अपेक्षा से प्रसत् है । सत् और् ग्रसत् विवेकपूर्वक समर्थन करना चाहिए । जो जिस रूप से सत् हो, उसे उसी रूप से सत् मानना चाहिए । जो जिस रूप से असत् है, उसे उसी रूप से असत् मानना चाहिए। सत् श्रौर प्रसत् के इस भेद को समझे बिना एकान्तरूप से सब को सत् या ग्रसत् कहना
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दोषपूर्ण है ।
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उपर्युक्त विवेचन से यह बात मालूम हो जाती है कि एक और अनेक नित्य और अनित्य, सान्त श्रीर अनन्त, सद् और सद्धर्मों का ग्रनेकान्तवाद के ग्राधार पर किस प्रकार समन्वय हो सकता है । यह समझना भूल है कि ग्रनेकान्तवाद स्वतन्त्र दृष्टि न होकर दो एकान्तवादों को मिलाने वाली एक मिश्रित दृष्टि मात्र है । वस्तु का ठीक ठीक स्वरूप समझने के लिए अनेकान्त दृष्टि ही उपयुक्त है । यह एक विलक्षण व स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसमें वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रतिभासित होता है । केवल दो एकान्तवादों को मिला देने से अनेकान्तवाद नहीं बन सकता, क्योंकि दो एकान्तवाद कभी एक रूप नहीं हो सकते । वे हमेशा एक दूसरे के विरोधी होते हैं ।