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________________ स्याद्वाद २७ प्रतीतियां स्वभाव में ही परस्पर सम्बन्धित हैं । जहाँ एक प्रतीति होगी वहीं दूसरो प्रवश्य होगी । विभज्यवाद और अनेकान्तवाद : मज्झिमनिकाय' में माणवक के प्रश्न के उत्तर में वुद्ध कहते हैं 'हे माणवक ! में विभज्यवादी हैं, एकांशवादी नहीं ।' भावक का प्रश्न था कि भगवन् ! मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही श्राराधक होता है, प्रब्रजित नहीं । इस विषय में ग्राप क्या कहते हे ? बुद्ध ने उत्तर दिया कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यावादी है तो farari का श्राराधक नहीं हो सकता श्रीर त्यागी भी यदि fraarat है तो निर्वाणमार्ग की प्राराधना नहीं कर सकता । दोनों यदि सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं तो दोनों प्राराधक हो सकते है । वह उत्तर विभज्यवाद का उदाहरण है । किसी प्रश्न का उत्तर एकान्तरूप से दे देना कि यह ऐसा ही है, ग्रथवा यह ऐसा नहीं है, एकांशवाद है । वृद्ध ने गृहस्थ और त्यागी की प्राराधना के प्रश्न को लेकर विभाजनपूर्वक उत्तर दिया, एकान्तरूप से नहीं, इसीलिए बुद्ध ने अपना को विभज्यवादी कहा है, एकांशवादी नहीं । सूत्रांग में भी ठीक इसी गन्द का प्रयोग है । भिक्षु को की भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसके उत्तर में कहा गया है कि भिन 'विभज्यवाद' का प्रयोग करें। जैनदर्शन में इस शब्द का अनेकान्तवाद या स्याद्वाद किया जाता है । जिस दृष्टि से जिन प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता हो, उस दृष्टि से उसका उत्तर देवास्था है | किसी एक अपेक्षा से इस प्रश्न का यह उत्तर हो है । किसी दूसरी घपेक्षा ने इस प्रश्न का यह उत्तर भी हो है। इस प्रकार एक प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं। दृष्टिकोद, चावाद, धनेशान्नवाद या विभज्यवाद का विभज्यवाद इतना लागे नहीं बढ़ सका, जितना कि कार का विभव्य अनेकान्नवाद और स्याद्वाद के रूप में
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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