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जानवाद और प्रमाणगास्त्र
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वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो, प्रत्यभिज्ञान के अन्दर समाविष्ट हो जाता है । केवल उपमान को ही प्रत्यभिज्ञान का पर्यायवाची मानना ठीक नहीं । सादृश्य, वैलक्षण्य, भेद, अभेद आदि सव का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है ।
तर्क-उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्ति ज्ञान तर्क है । इसे ऊह भी कहते हैं। उपलम्भ का अर्थ है लिंग के सद्भाव से साध्य के सद्भाव का ज्ञान । धूम लिंग है और अग्नि साध्य है। धूम के सद्भाव के ज्ञान से अग्नि के सद्भाव का ज्ञान करना उपलम्भ है । अनुपलम्भ का अर्थ है साध्य के असद्भाव से लिंग के असद्भाव का ज्ञान । 'जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम नहीं हो सकता' इस प्रकार का निर्णय अनुपलम्भ है । उपलम्भ और अनुपलम्भ रूप जो व्याप्ति है उससे उत्पन्न होने वाला जान तर्क है । इसके होने पर ही यह होता है, इसके अभाव में यह नहीं हो सकता । इस प्रकार का ज्ञान तर्क है । तर्क का दूसरा नाम ऊह है ।
प्रत्यक्ष से व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष का विपय सोमित है। जिस विपय से प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है उसी विषय तक वह सीमित रहता है। त्रिकालविपयक व्याप्तिमान उससे उत्पन्न नहीं हो सकता । माधारण प्रत्यक्ष का विषय वर्तमानकालीन सीमित पदार्थ हैं। किसी त्रैकालिक निर्णय पर पहुँचना प्रत्यक्ष के बस की बात नहीं । इसके लिए तो किसी स्वतन्त्र प्रमाण की आवश्यकता है जो त्रिकालविषयक निर्णय पर पहुँचने में समर्थ हो । यह प्रमाण तर्क है।
अनुमान भी तक का स्थान नहीं ले सकता, क्योंकि अनुमान का आधार ही तकं है । जब तक तर्क से व्याप्तिनान न हो जाय तब तक अनुमान की प्रवृत्ति ही असम्भव है। दूसरे शब्दों में यदि तर्कशान नहीं है तो अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। अनुमान स्वयं तर्क पर प्रतिष्टित है। ऐसी अवस्था में तर्क का
१-उपलम्भानुपनन्म निमितं व्याप्तिज्ञानमूहः ।
-प्रमालमीमांना १२