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मानवाद और प्रमाणशास्त्र
२६१ नहीं है । जिस भूतल पर पहले हमने घट देखा था उसी भूतल को अव हम शुद्ध भूतल के रूप में देख रहे हैं। यह शुद्ध भूतल ही घटाभाव है और इसका दर्शन प्रत्यक्षपूर्वक है। इस विश्लेपण से यही फलित होता है कि अभाव प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं है। एक का अभाव दूसरे का भाव है । प्रत्यक्ष :
प्रत्यक्ष का लक्षण वंशद्य या स्पष्टता है। सन्निकर्ष या कल्पनापोढत्व प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं माना गया है । वैशद्य किसे कहते हैं ? जिसके प्रतिभास के लिए किसी प्रमाणान्तर की आवश्यकता न हो अथवा जो 'यह'-इदन्तया प्रतिभासित होता हो उसे वैशद्य कहते हैं। प्रमाणान्तर का निषेध इसलिए किया गया है कि प्रत्यक्ष अपने विषय के प्रतिभास के लिए स्वयं समर्थ है । उसे किसी दूसरे प्रमाण से सहायता को अपेक्षा नहीं । अनुमान, अागमादि प्रमाण अपने श्राप में पूर्ण नहीं हैं। उनका अाधार प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष अपने में पूर्ण है । उसे किसी अन्य प्राधार के सहयोग की आवश्यकता नहीं। 'यह' इस रूप से प्रतिभासित होना भी प्रत्यक्षपूर्वक ही है। 'यह' का अर्थ स्पष्ट प्रतिभास है । जिस प्रतिभास में स्पष्टता न हो, वीत्र में व्यवधान हो, एक प्रतीति के आधार से दूसरी प्रतीति तक पहुँचना पड़ता हो वह प्रतिभास 'यह' एतद्रूप प्रतिभास नहीं है । ऐसे व्यवहित प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं । प्रत्यक्ष में इस प्रकार का कोई व्यवधान नहीं रहता।
हम यह देख चुके हैं कि जैनताकिकों ने प्रत्यक्ष का दो दृष्टियों से प्रतिपादन किया । एक लोकोत्तर या पारमार्थिक दृष्टि है और
१-'विशद: प्रत्यक्षम्'
-प्रमारणमीमांसा ११११३ 'स्पष्टं प्रत्यक्षम्'
-प्रमारणनयतत्त्वालोक २।२ 'विशदं प्रत्यक्षमिति'
-परीक्षामुख २१३ २-'प्रमाणान्तरानपेक्षे दन्तया प्रतिभासो वा वाद्यम् ।'
--प्रमाणमीमांसा २०१४ 'प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेपदत्तया वा प्रतिभासनं देशद्यम् ।'
~परीक्षामुख १४