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जैन-दर्शन केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है । अनिन्द्रियजन्यज्ञान केवल मन से पैदा होता है। इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपयुक्त सूत्र से ही फलित होते हैं।
अकलंक ने सम्यग्ज्ञान (प्रमाण) के दो भेद किए हैं--प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष दो प्रकार का है.-मुख्य और सांव्यवहारिक । मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किए गए हैं-~-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है। श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान आदि परोक्षान्तर्गत हैं । इन्द्रियप्रत्यक्ष के चार भेद बताए गए हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनके अवान्तर भेद भी हैं, जिनका निर्देश आगे किया जाएगा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के स्मृति, संज्ञा आदि भेद हैं। यहाँ पर हम अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के स्वरूप का विचार करेंगे । ये चारों मतिदान के मुख्य भेद हैं । इसके पहले इन्द्रिय और मन का क्या अर्थ है, यह देख लें। इन्द्रिय:
अात्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का प्रावरण होने से सीधा यात्मा से ज्ञान नहीं हो सकता। इसके लिए किसी माध्यम की आवश्यकता रहती है। यह माध्यम इन्द्रिय है। जिसकी सहायता से ज्ञान का लाभ हो सके, वह इन्द्रिय है। ऐसी इन्द्रियाँ पाँच हैं-~स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र । सांख्य आदि दर्शन वाक, पागि प्रादि कर्मेन्द्रियों को भी इद्रिय-संख्या में गिनते हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच ही हैं। प्रत्येक इन्द्रिय दो प्रकार की होती हैद्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । पुद्गल का ढाँचा द्रव्येन्द्रिय है और श्रात्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के पुनः दो भेद हैं
१-लघीयस्त्रय ३-४ २-वही ६१
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