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ज्ञानवाद र प्रमागाशास्त्र
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नाविकों ने दार्शनिक भूमिका पर जिस ढंग से व्याख्या की है वैसी व्याख्या ग्रागमकान में नहीं मिलती । इसका कारण दार्शनिक संघर्ष है । ग्रागमकान के बाद जैनदार्शनिकों को ग्रन्य दार्शनिक विचारों के साथ काफी संघर्ष करना पड़ा और उस संघर्ष के परिगामस्वरूप एक नए ढंग के ढाँचे का निर्माण हुआ । इस ढाँचे की शैली और सामग्री दोनों का आधार दार्शनिक चिंतन रहा । सर्व प्रथम हम पाँचों ज्ञानों का स्वरूप देखेंगे । इसके लिए ग्रावश्यकता - नुमार श्रागमग्रंथ और दार्शनिक ग्रंथ दोनों का उपयोग किया जाएगा। तर्कशास्त्र और प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान यादि का विवेचन प्रमारण चर्चा के समय किया जाएगा। इस विवेचन का मुख्य ग्राधार प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित दार्शनिक ग्रंथ होंगे ।
मतिज्ञान :
हम देख चुके हैं कि ग्रागमों में मतिज्ञान को ग्राभिनिवोधिक ज्ञान कहा गया है । उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता श्रीर ग्रभिनिबोध को एकार्थक बताया है । भद्रबाहु ने मतिज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया है-ईहा, प्रपोह विमर्श, मार्गगा, गवेपणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा' । नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द है । मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है । स्वोपज्ञभाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताए गए हैं - इन्द्रियजन्यज्ञान और मनोजन्यज्ञान' | ये दो भेद उपर्युक्त लभर से ही फलित होते हैं। नगर की टीका में तीन भेदों का वर्णन है-- इन्द्रियजन्य, ग्रनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य ) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य' । इन्द्रियजन्यज्ञान
१ - मति: स्मृति संज्ञा निन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्'
२ - विशेषावश्यक भाष्य, ३९६
FM. - 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' १/१४
४ - तस्वायंभाप्य १ १४
५-- तत्व
पर टीका १/१४
- तत्त्वार्धसूत्र १/१३