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जैन दर्शन में तत्त्व
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अभावमात्र नहीं है, अपितु प्रकाश की ही भाँति भावात्मक द्रव्य है। जैसे प्रकाश में रूप है उसी प्रकार तम में भी रूप है, अतः तम प्रकाश की ही तरह भावरूप है । जिस प्रकार प्रकाश का भासुर रूप और उष्णस्पर्श लोक में प्रसिद्ध है उसी प्रकार अन्धकार का कृष्णरूप और शीतस्पर्श लोक की प्रतीति का विषय है। तम द्रव्य है, क्योंकि उसमें गुण हैं । जो जो गुणवान् होता है, वह वह द्रव्य होता है-जैसे पालोकादि । छाया :
प्रकाश पर आवरण या जाने से छाया होती है। इसके दो प्रकार हैं---तद्वर्णादि विकार और प्रतिविम्ब ।। दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में जो मुख का बिम्ब पड़ता है और उसमें प्राकार आदि ज्यों का त्यों देखा जाता है वह तद्वर्णादि विकाररूप छाया है । अन्य अस्वच्छ द्रव्यों पर प्रतिविम्ब मात्र का पड़ना प्रतिविम्व रूप छाया है। प्रातप:
सूर्य, अग्नि आदि का उष्ण प्रकाश आतप है । उद्योत :
चन्द्र, मणि, खद्योत अादि का शीत प्रकाश उद्योत है ।
पुद्गल के कार्यों का यह एक दिग्दर्शन मात्र है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी कार्य हैं, सव पुद्गल के ही समझने चाहिए। शरीर, वाणी, मन, निःश्वास, उच्छवास, सुख, दुःख, जीवन, मरण ग्रादि सभी पुद्गल के ही कार्य हैं । कुछ कार्य शुद्ध पौद्गलिक होते हैं और कुछ कार्य प्रात्मा और पुद्गल दोनों के सम्बन्ध से होते हैं । शरीर, वागी आदि कार्य प्रात्मा के सम्बन्ध से होते हैं ।
१-वही ५ । २४, २०-२१ २-दारीरवाड-मनःप्रारणापाना: पुद्गलानाम् । सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥
-तत्त्वार्थमूत्र, ५ । १६-२०