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जैन दर्शन में तत्त्व
ग्रशब्दात्मक है | शब्द का कारण स्कन्धों का राना है' ।' ग्रतः शब्द पुद्गल का कार्य है ।
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परस्पर में टक
शब्द दो प्रकार का है - भाषालक्षण और तद्विपरीत प्रभाषालक्षरण | भाषा - लक्षरण दो प्रकार का है— ग्रक्षरीकृत और ग्रनक्षरीकृत । ग्रक्षरीकृत मनुष्य ग्रादि को स्पष्ट भाषा है और अनक्षरीकृत हीन्द्रियादिप्राणियों की अस्पष्ट भाषा है । भाषा लक्षण प्रायोगिक ही है । भाषालक्षण के दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैसिक । वैस्रसिक शब्द बिना किसी आत्म- प्रयत्न के उत्पन्न होता है । बादलों की गर्जना आदि वैस्रसिक है । प्रायोगिक शब्द के चार प्रकार हैं-तत, वितत, धन और सीपिर । चर्म से बने वाद्य मृदंग, पटह यादि से उत्पन्न होने वाला शब्द तत कहलाता है । तार वाले वाद्य वीणा, सारंगी ग्रादि से पैदा होने वाला शब्द वितत है । घंटा, ताल ग्रादि के उत्पन्न शब्द घन कहलाता है । फंक कर वजाए जाने वाले शंख, वंशी ग्रादि से पैदा होने वाला शब्द सौषिर कहलाता है ।
बन्ध :
वैसिक और प्रायोगिक भेद से बंध भी दो प्रकार का है । वैस्रसिक बंध के पुनः दो भेद होते हैं-ग्रादिमान् और अनादि । स्निग्ध और रूक्ष गुरण निर्मित विद्युत, उल्का, जलधार, अग्नि, इन्द्रधनुरादिविषयक वन्ध आदिमान् है । धर्म, ग्रधर्म ग्रौर आकाश का जो बन्ध है वह अनादि है । प्रायोगिक वन्ध दो प्रकार का है । जीवविषयक गौर जीवाजीव विषयक | जन-काष्ठादि का वन्ध जीवविषयक है । जीवाजीवविषयक बन्ध कर्म और नोकर्म के भेद से दो प्रकार का है । ज्ञानावरणादि प्राठ प्रकार का बन्ध कर्म-बन्ध है | ग्रौदारिकादि विषयक बन्ध नोकर्म बन्ध है ।'
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-- पंचास्तिकायसार ८५, ८६
२-तत्त्वार्थराज वार्तिक ५ । २४, २-६
३ - वही ५ | २४ १०-१३