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जैन दर्शन में तत्त्व
अणु हमारी इन्द्रियों के विषय नहीं बन सकते । वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ज्ञान नहीं कर सकतीं । यदि ऐसी बात है तो उन्हें अरूपी क्यों न मान लिया जाय ? अणु अरूपी नहीं हैं, क्योंकि उनका स्कन्धादि कार्य रूपी है । जो तत्त्व अरूपी होता है उसका कार्य भी अरूपी ही होता है। स्कन्धादि रूपी कार्यों से परमाणु के रूप का अनुमान किया जाता है। इसलिए इन्द्रियजन्यज्ञान के विषय न होते हुए भी अणु रूपी हैं।
जैन दर्शन मानता है कि स्कन्ध से जो अणु पैदा होते हैं वे भेदपूर्वक हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जो पुद्गल वर्तमान में अणु रूप से सत् नहीं हैं, वह अणु हो सकता है या नहीं? यदि हो सकता है तो कैसे ? पुद्गल के दो रूप बताए जा चुके हैं। उनमें से जो पुद्गल अणुरूप में रहा हुआ है उसकी उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। जो पुद्गल अणुरूप में नहीं है अपितु स्कन्धरूप में है, वह क्या अणुरूप में प्रा सकता है ? इसका उत्तर है-हाँ, वह अणुरूप में आ सकता है। यह कैसे ? इसके उत्तर में कहा गया कि भेदपूर्वक । जब स्कन्ध में भेद होता है-स्कन्ध टूटता है तभी अणु पैदा हो सकता है। स्कन्ध का एक अविभागी अंश ही अणु है । इस प्रकार स्कन्ध का भेद ही अणु की उत्पत्ति में कारण है। संयोग से अणु उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि जहाँ संयोग होगा वहाँ कम-से-कम दो अणु अवश्य होंगे और दो अणु वाला स्कन्ध होता है, न कि अणु । _वैशेपिक नव द्रव्य मानते हैं--पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, अाकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ।' इन नव द्रव्यों में से प्रथम चार द्रव्य - पृथ्वी, अप, तेज और वायु-इन चारों द्रव्यों में जिन गुणों को मानते हैं वे सव गुण पुद्गल द्रव्य में आ जाते हैं । वैशेषिक वायु को स्पर्श गुण युक्त ही मानते हैं। वे कहते हैं कि वायु में वर्ण, रस और गन्ध नहीं हैं । जैन दार्शनिक इस बात को नहीं मानते । वे कहते हैं कि रूप, रस, गन्ध और
-- तत्त्वार्थसूत्र ५।२७
१-'भेदादराः २-वंशेषिकदर्शन, ११११५ ३ .. वैशेषिक दर्शन, २०१४